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________________ निंदा में लाज १६३ चेष्टा करेगा ? नहीं ! ऐसा करने में सज्जन की सज्जनता को लाज आती है । जब विश्वकवि रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबल पुरस्कार मिला और उनकी शुभ्रकीर्ति अन्तर्राष्ट्रीय क्षितिजों को छूने लगी तो कुछ महानुभावों के लिए वह भयंकर व्यथा की तरह असह्य हो गई । वे रविबाबू से जलते थे, और अन्तर की कलुषित भावनाओं को पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा बिखेरते भी थे । उनकी कटु आलोचनाओं को रविबाबू सदा शांत एवं प्रसन्न होकर सहन करते । एकबार उपन्यास सम्राट् शरच्चन्द्र से जब वे कटुआक्षेप असह्य हो उठे तो उन्होंने विश्वकवि से उनका जोरदार प्रतिवाद करने के लिए कहा। इस पर रविठाकुर मुस्कराकर बोले— उपाय क्या है शरत्बाबू ! जिस शस्त्र को लेकर वे लोग लड़ाई करते हैं, उस शास्त्र को मैं तो छू भी नहीं सकता । बात चीत के प्रसंग में एकबार पुनः विश्वकवि ने कहा- मैं जिसकी प्रसंशा नहीं कर सकता उसकी निंदा करने में भी मुझे लाज लगती है । * यही है सज्जनता का निर्मलरूप ! * शरद् निबन्धावली ( पृ० १२७) हि० ग्र० २० बम्बई से प्रकाशित । Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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