________________
५८
निंदा की लाज
'निंदा' दो अक्षर का वह विष है, जो मनुष्य के ज्ञान और चरित्र को कलुषित कर उसकी यशःदेह को नष्ट कर डालता है। निंदा करनेवाला-चाहे विद्वान् है, तब भी शास्त्रों में उसे मूर्ख, अज्ञान कहा है। निंदक का चरित्र तो अच्छा हो ही नहीं सकता। भगवान महावीर ने कहा है-- अन्नं जणं खिसति बालपन्न
__ --सूत्र १।१३।१४ अपनी प्रज्ञा आदि के अहंकार में दूसरों की अवज्ञा और निंदा करनेवाला सच नुख मूर्ख -बुद्धि है।
और निंदा सुनकर जो व्यक्ति अपना धैर्य खो बैठता है, शास्त्रों की भाषा में वह भी बाल है, अज्ञानी है,
कोई बच्चा यदि किसी राह चलते सज्जन पर थूक दे, तो क्या वह सज्जन आदमी भी उस पर थूकने की
१६२
Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org