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________________ १३४ प्रतिध्वनि से पुकारता था। निषादराज का यह असभ्य व्यवहार लक्ष्मण को बहुत अखरता । एक दिन वे क्रोधित हो गये, और उसे पीटने के लिए तैयार हो गए। राम ने लक्ष्मण को समझाते हुए कहा-'लक्ष्मण ! तू जड़ शब्दों में उलझ रहा है, पर उसकी भावना की मधुर सौरभ को नहीं पहचान पा रहा है। इसके मुंह से प्रेमपूर्वक निकला हुआ 'तू' शब्द मुझे सहस्रों 'आप' शब्दों से भी अधिक प्रिय लगता है । क्या तुम नहीं देख रहे हो, उसकी भावनाओं में भक्ति और स्नेह की कितनी जबदस्त हिलोर है ? यह हिलोर शब्दों में नहीं बंध सकती, इसमें भावना का वेग हैं, तुम उस वेग को समझो !' राम के समझाने पर लक्ष्मण ने शब्दों की पकड़ से निकल कर भावना के मधुर-मधुर जगत् में झांका तो वे स्वयं ही भाव-विभोर हो उठे। Jain Education InternationaFor Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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