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अपनी छाया
अनुगमन कर रही थी। बालक को घूमती-फिरती छाया देखकर आश्चर्य हुआ। वह एक जगह खड़ा हो गया, छाया भी खड़ी हो गई। वह एक जगह बैठा, छाया भी बैठ गई । वह दौड़ने लगा तो छाया भी पीछे-पीछे दौड़ने लगी। वह छाया को पकड़ने का प्रयत्न करने लगा, पर छाया तो उसके पीछे खिसक जाती। वह हैरान था, और रास्ते में ही इधर-उधर पागल जैसे भटकने लगा।
विद्यालय की छुट्टी कर उसका अध्यापक भी उसी रास्ते आ रहा था। बालक का यह पागलपन देखकर उसने पूछा- "रमेश ! क्या कर रहे हो ?"
“सर ! मेरे पीछे यह छाया चल रही है, इसका सर पकड़ना चाहता हूँ, पर यह हाथ ही नहीं आ रही है ।"
अध्यापक ने बालक को समझाते हुए कहा-'रमेश ! छाया को पकड़ने के लिए दौड़ने पर छाया कभी हाथ नहीं आती। इसे पकड़ना चाहते हो, तो एक तरीका है।'
“सर ! क्या तरीका है, जल्दी बताइए !"-बालक ने कुतूहलपूर्वक पूछा !
"तुम अपना सिर पकड़कर खड़े हो जाओ !''
बालक ने ज्यों ही अपना सिर पकड़ा, उसने देखा, छाया ने भी अपना सिर पकड़ लिया है। वह किलकारी मार कर हंस पड़ा-'वाह ! सर ! बहुत अच्छा ! अपना सिर पकड़ने से ही छाया का सिर पकड़ में आ जाता है।'
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