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________________ दूषित भेंट दान, शील, तप-ये मोक्ष के साधन हैं ! किंतु कब ? जब वे आत्म शृद्धि के लिए किए जाते हों, यदि इन में लोक दिखावे और प्रतिष्ठा की भावना आगई तो समझिए अमत भी जहर हो गया। अब शरीर को बल देता है, पर कोन सा अन्न ? शुद्ध अन्न ! यदि दूषित अन्न खाया जाय तो वहो प्राण नाशक भी बन जाता है। इसी प्रकार धर्म, दान, पूजा, भक्ति आदि के साथ यदि लोक वासना-दिखावे की भावना आ जाती है तो वे सब शुभ कृत्य भी दूषित अन्न की भांति त्याज्य बन जाते हैं। एक धनाढ्य सेठ ने भगवान के मंदिर में एक हजार स्वर्ण मुद्रायें अर्पित करने की घोषणा की ! वह उन मुद्राओं की थैलियों को लेकर मूर्ति के समक्ष जाकर बैठ गया। थेलियां जोर-जोर से पटकने लगा ताकि उसकी Jain Education InternationaFor Private Personal Use Only www.jainelibrary.org 10.
SR No.003199
Book TitlePratidhwani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages228
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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