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उठ ! चल पड़ !
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गए। उसके मन में एक दुविधा खड़ी हो गई। रात का घुप्प अंधकार है । चारों ओर सन्नाटा छाया है । और लालटेन का प्रकाश बहुत ही मन्द है, सिर्फ दस कदम ही उससे दिखाई पड़ते हैं, जबकि पहाड़ की चढ़ाई दस मील की है । वह सोचता रहा- इस दस कदम तक पड़ने वाली रोशनी से दस मील कैसे चढ़ा जायेगा ? बस उसका उत्साह ठंडा पड़ गया, वहीं दम डाल के बैठ गया ।
तभी एक बूढ़ा हाथ में छोटी सी लालटेन लिए पहाड़ी की ओर जाता उधर से निकला । बूढ़े को रोककर किसान ने पूछा- बाबा, कहाँ जा रहे हो ?
पहाड़ी पर भगवान के प्रातःकाल के दर्शन करनेबूढ़े ने बड़ी संजीदगी से जबाव दिया ।
युवक किसान बोला - "बाबा, चला तो मैं भी था, पर हमारी लालटेन से तो सिर्फ दस कदम तक ही रोशनी पड़ती है, यह दस मील की चढ़ाई कैसे पार पड़ेगी ?"
बूढ़ा उसकी बात पर हँसा - पागल कहीं का ! दस कदम की रोशनी तो काफी है, पहले दस कदम तो चल, फिर देख आगे के दस कदम पर रोशनी और पडने लगेगी, जैसे चलेगा, आगे से आगे रास्ता दीखता जायेगा, एक कदम की रोशनी के सहारे तो मैं सारी धरती की परिक्रमा कर आऊँ ! उठ ! चल ! चलने वाले को आगे सेआगे रोशनी मिलती जाती है ।"
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