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( ८२ ) परिचय दिया है । इससे यह स्पष्ट होता है कि उन्हें उन सभी विषयों में प्रौढ़ प्रभुत्व प्राप्त था, उनका पांडित्य सर्वदिगंतव्यापी था और उनका ज्ञानरवि अपनी प्रखर रश्मियों से सम्पूर्ण साहित्य जगत् को आलोकित कर रहा था।
आयुर्वेद साहित्य के प्रति जैनाचार्यों द्वारा की गई सेवा भी उतनी हो महत्त्वपूर्ण है जितनी अन्य साहित्य के प्रति । किन्तु दुःख इस बात का है कि जैनाचार्यों ने जितने वैद्यक साहित्य का निर्माण किया है वह अभी तक प्रकाशित नहीं किया जा सका है। यही कारण है कि वर्तमान में उनके द्वारा लिखित अनेक वैद्यक ग्रन्थ या लुप्त हो गए हैं अथवा खंडित रूप में होने से अपूर्ण हैं। कालकवलित हुए अनेक वैद्यक ग्रन्थों का उल्लेख विभिन्न आचार्यो की वर्तमान में उपलब्ध अन्यान्य कृतियों में मिलता है । विभिन्न जैन भंडारों या जैन मन्दिरों में खोजने पर अनेक वैद्यक ग्रन्थों के प्राप्त होने की सम्भावना है। अतः विद्वानों द्वारा इस दिशा में प्रयत्न किया जाना अपेक्षित है । सम्भव है इन वैद्यक ग्रंथों के प्रकाश में आने से आयुर्वेद के उन महत्त्वपूर्ण तथ्यों और सिद्धान्तों का प्रकाशन हो सके जो आयुर्वेद के प्रचुर साहित्य के कालकवलित हो जाने से विलुप्त हो गए हैं । जैनाचार्यो द्वारा लिखित वैद्यक ग्रंथ के प्रकाशन से आयुर्वेद के विलुप्त साहित्य और इतिहास पर भी प्रकाश पड़ने की संभावना है।
जैनाचार्यों द्वारा लिखित वैद्यक ग्रन्थों में से अब तक जो प्रकाशित हुए हैं उनमें से श्री उग्रत्याचार्य द्वारा प्रणीत कल्याणकारक और श्री पूज्यपादस्वामी द्वारा विरचित वैद्यसार ये दो ग्रन्थ महत्त्वपूर्ण हैं । इनमें से प्रथम कल्याणकारक का प्रकाशन १ फरवरी १९४० में श्री सेठ गोविन्द जी रावजी दोशी, सोलापुर द्वारा किया गया था । इसका हिन्दी अनुवाद और सम्पादन श्री पं० वर्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सोलापुर ने किया है। द्वितीय वैद्यसार नामक ग्रन्थ जैन सिद्धान्त भवन, आरा से प्रकाशित हुआ है। इसका सम्पादन और हिन्दी अनुवाद आयुर्वेदाचार्य पं० सत्यंधर जैन, काव्यतीर्थ ने किया है, किन्तु यह ग्रन्थ वस्तुतः श्री पूज्यपाद द्वारा विरचित है इसमें विवाद है यद्यपि ग्रन्थ में जो विभिन्न चिकित्सायोग वर्णित हैं उनमें से अधिकांश में 'पूज्यपादैः कथितं' 'पूज्यपादोदितं' आदि का उल्लेख मिलता है, किन्तु ऐसा लगता है कि ये
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