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________________ ७४ ) अपने पति के पास मेघ को दूत बनाकर भेजती है । इसीलिए इस काव्य का नाम मेघदूत है । जैनों के २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ के जीवन-चरित पर आधारित होने तथा एक जैन विद्वान् की कृति होने के कारण इसे 'जैनमेघदूत' कहा गया है, लेकिन भाषा-शैली, विचार-तारतम्य और रस की दृष्टि से यह काव्य एक स्वतन्त्र रचना है | कवि का भाषा पर पर्याप्त अधिकार है, पर जान-बूझकर काव्य को जटिल बनाया गया है । काव्य प्रकाश में जो यह कहा गया है-श्रुतिमात्रेण शब्दानां येनार्थप्रत्ययो भवेत् । साधारणः समग्राणां स प्रसादो गुणः स्मृतः ॥ इस रूप से निर्दिष्ट प्रसाद-गुण तो इस काव्य में बहुत ही कम है । जिस प्रकार कलिदास के मेघदूत में मेघ को दूत के रूप में चुना गया है उसी प्रकार इस दूत- काव्य में भी मेघ को ही दूत के रूप में चुना गया है । उसी प्रकार मेघ से सर्वप्रथम कुशल-वार्ता पूछी गयी है । उसके चरित्र, कुल वंश की प्रशंसा की गई है और उसका स्वागत भी किया गया है । बाद में नेमिनाथ का परिचय भी दिया गया है । परन्तु मेघदूत के समान मार्ग वर्णन इस जैनमेघदूत में नहीं मिलता है । इस प्रकार भौगोलिक ज्ञान की कोई भी जानकारी इस काव्य में नहीं देखने को मिलती है । काव्य का प्रारम्भ ही विप्रलम्भ-श्रृंगार से होता है । अपने प्रिय के वियोग में राजीमती अत्यन्त व्याकुल है, उसी समय आकाश में छाये मेघों को देख सहसा उसका हृदय और भी विचलित हो उठता है, उसके हृदय से प्रिय का वियोग फूट पड़ता है हेतोः कस्मादहिरिव तदासञ्जिनीमप्यमुञ्च न्मा निर्मोकत्वचमिव लघु ज्ञोऽप्यसौ तन्न जाते । यद्वा देवे दधति विमुखीभावमाप्तोऽप्यमित्रेतर्णस्य स्मात्किमु नियमने मातृजङ्घा न कीलः || १२|७|| इस काव्य के द्वितीय सर्ग में कवि ने नेमिकुमार की श्रीकृष्ण की स्त्रियों के साथ की गई क्रीड़ाओं का सुन्दर चित्रण किया है --- अन्या लोकोत्तर ! तनुमता रागपाशेन बद्धो मोक्षं गासे कथमिति ? मितं सस्मितं भाषमाणा । व्यक्तं रक्तोत्पलविरचितेनैव दाम्ना कुटीरे काञ्चीव्याजात्प्रकृतिरिव तं चेतनेशं बबन्ध || २|२१|| Jain Education International For Private & Personal Use Only ―――― www.jainelibrary.org
SR No.003193
Book TitleJain Sahitya ke Vividh Ayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1981
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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