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FE यही बात केनोपनिषद्, कठोपनिषद्, बृहदारण्यक, माण्डूक्योपनिषद्, १० तैत्तिरीयोपनिषद्," और ब्रह्मविद्योपनिषद, १२ में भी प्रतिध्वनित हुई है। . आचारांग13 में ज्ञानियों के शरीर का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ज्ञानियों के बाहु कृश होते हैं, उनका मांस और रक्त पतला एवं न्यून होता है। यही बात अन्य शब्दों में नारद परिव्राजकोपनिषद्, एवं संन्यासोपनिषद्,१५ में भी कही गई है। - पाश्चात्य विचारक शुब्रिग ने अपने सम्पादित आचारांग में आचारांग के वाक्यों की तुलना धम्मपद और सुत्तनिपात से की है । मुनि सन्तबालजी ने आचारांग की तुलना श्रीमद्गीता के साथ ही को है। विशेष जिज्ञासुओं को वे ग्रन्थ देखने चाहिए।
सूत्रकृतांग की तुलना दीघनिकाय व अन्य ग्रंथों से की जा सकती है। स्थानांग और समवायांग सूत्र को रचनाशैलो अंगुत्तरनिकाय और पुग्गलपञ्चति को शैली से बहुत कुछ मिलती-जुलती है । स्थानांग में कहा गया है कि छह स्थान से आत्मा उन्मत्त होती है। अरिहन्त का अवर्णवाद करने से, आचार्य, उपाध्याय का अवर्णवाद करने से, चतुर्विध संघ का अवर्णवाद करने से, यक्ष के आवेश से, मोहनीय कर्म के उदय से। तो बुद्ध ने भी अंगुत्तर निकाय में कहा है कि चार अचिन्तनीय की चिन्ता करने से मानव उन्मादी हो जाता है—(१) तथागत बुद्ध भगवान् के ज्ञान का विषय, (२) ध्यानी के ध्यान का विषय, (३) कर्मविपाक और (४) लोकचिन्ता।१७
स्थानांग में जिन कारणों से आत्मा के साथ बंध होता है, उन्हें आस्रव ८ कहा है । मिथ्यात्व, अब्रत, प्रमाद, कषाय और योग-आस्रव कहे गए हैं। बौद्धग्रन्थ अंगुत्तरनिकाय ९ में आस्रव का मूल अविद्या को बताया है। अविद्या का निरोध होने से आस्रव का स्वतः निरोध हो जाता है । आस्रव के कामास्रव, भवास्रव और अविद्यास्रव-ये तीन भेद किये हैं। मझिमनिकाय२० में मन, वचन और काय की क्रिया को ठीकठीक करने से आस्रव रुकता है यह प्रतिपादित किया गया है। आचार्य उमास्वाति ने भी काय-मन-वचन की क्रिया को योग कहा है और वही आस्रव है ।२१ स्थानांग में विकथा के स्त्रीकथा, भक्तकथा; देशकथा, राजकथा, मृदुकारुणिकोकथा, दर्शनभेदिनोकथा और चारित्रभेदनीकथा
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