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( ५७ ) (अ० १२३३); 'आदिनिटुडवः' (अ०१।३५); 'षः प्रत्ययस्य' (अ.१।३।६); "चुटू" (अ० ११३७), इन पाँच सूत्रों में इत् संज्ञा का निरूपण किया है। किंतु शाकटायन ने 'अप्रयोगोत्' (शा० १२१५) एक ही सूत्र बनाकर काम चला लिया है । यहाँ पर शाकटायन जैनेन्द्र व्याकरण के कार्यार्थोऽप्रयोगीत्” (१।३।३) सूत्र के सन्निकट है। हेम ने भी शाकटायन का ही अनुकरण किया है। इसके अतिरिक्त पाणिनि ने 'स्वरादिनिपातमव्ययम्' (अ० ११११३७); 'तद्धितप्रचासर्वविभक्ति' ( अ०१।१।३८); 'कृन्मजन्तः' ( अ० १५११३९); 'कत्वातोसुन्कसुनः' ( अ०१।११४०); 'अव्ययीभावश्च' ( अ० ११११४१ ) इन सूत्रों में अव्ययसंज्ञा का निरूपण किया है। लेकिन शाकटायन ने 'तस्वन्डामधण्तस्यांक्वान्तुन्तिसुप्तस्वाभास्वरादीन्यव्ययम् (शा०१।११३९) ऐसा लम्बायमान सूत्र बनाकर पाणिनि के पांचों सूत्रों का निवेश कर लिया है। यहाँ यर शाकटायन ने निपात संज्ञा को अव्ययसंज्ञा में ही विलीन कर लिया है अर्थात् चादि को निपात न मानकर सीधा अव्यय मान लिया। यह एक संक्षिप्तीकरण का लघुतम प्रयास है।
पाणिनि का धु संज्ञा विधायक 'दाधा घ्वदाप्' ( अ० १।१।२० ) सूत्र है। शाकटायन ने इसी संज्ञा के लिए 'दाधाध्वज' (शा० ११२३ ) सूत्र लिखा है एवं पाणिनि का घ संज्ञा विधायक 'तरप्तमपौ घः' ( अ० १।१।२२ ) सूत्र है। शाकटायन ने उक्त संज्ञा के लिए 'तोङः' ( शा० ३।४।७३ ) सूत्र निर्देश किया है । इस संज्ञा के कथन में शाकटायन की लाघवपूर्ण दृष्टि है, किन्तु पाणिनि का ही अनुकरण प्रतीत होता है। हाँ घ संज्ञा के स्थान पर शाकटायन ने 'ङसंज्ञा' नामकरण कर दिया है। दोनों ही शब्दानुशासकों का एक-सा ही भाव है। .
शाकटायन और पाणिनि की संज्ञाओं में एक मौलिक अन्तर यह है कि पाणिनि ने अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय और उपध्मानीय को व्यञ्जनविकार माना है। वस्तुतः अनुस्वार नकार या मकार जन्य है। विसर्ग सकार या कहीं रेफजन्य होता है। जिह्वामूलीय और उपध्मानीय दोनों क्रमशः क, ख और प, फ के पूर्व विसर्ग के ही विकृत रूप हैं। पाणिनि ने उक्त अनुस्वार, आदि को अपने प्रत्याहार सूत्रों में-(वर्णसमाम्नाय ) स्वतन्त्र रूप से कोई स्थान नहीं दिया है। परवर्ती पाणिनीय वैयाकरणों ने इसकी बड़ी चर्चा की है कि उक्त चारों को स्वरों के अन्तर्गत माना जाए या व्यञ्जनों के । पाणिनीय तन्त्र के
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