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आचार्य शाकटायन (पाल्यकीर्ति) और पाणिनि
श्रीरामकृष्ण पुरोहित संस्कृत व्याकरण के रचना की परम्परा बहुत प्राचीन है। अतएव पाणिनि का शब्दानुशासन परवर्ती अनेक व्याकरणों का प्रेरणास्रोत रहा है। इन परवर्ती व्याकरणों में पाणिनि स्पष्ट रूप से परिलक्षित हैं। व्याकरण वाङ्मय में मुख्यतः व्याकरणों की संख्या आठ सुनी जाती है। इस सम्बन्ध में अधोलिखित श्लोक प्रसिद्ध है
इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टौ हि शाब्दिकाः ॥ कहीं-कहीं यह श्लोक इस रूपान्तर में भी प्राप्त है
ऐन्द्रं चान्द्रं काशकृत्स्नं कौमारं शाकटायनम् ।
सारस्वतं चापिशलं शाकलं पाणिनीयकम् ।। महर्षि पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में अपने पूर्ववर्ती आपिशलि (६।१९८९), काश्यप (१।२।२५), गार्य (८।३।२०), गालव (७।३।९९), चाक्रवर्मण (६।१११२६), भारद्वाज (७।२।६३), शाकटायन (८।३।१८), शाकल्य (शश१६), सेनक (५।४।११२) तथा स्फोटायन (६।१।११२), इन वैयाकरणों का नामोल्लेख किया है, किन्तु विद्वानों का मत है कि जिन शाकटायन का पाणिनि ने नाम लिया है, वे सम्प्रति उपलब्ध शाकटायन व्याकरण से भिन्न हैं।
उपलब्ध शाकटायन व्याकरण जैन परम्परा के यापनीय संघ के अग्रणी और प्रसिद्ध आचार्य पाल्यकीर्ति की रचना है। इसका विस्तृत अध्ययन जर्मन विद्वान् डॉ० आर० विरबे ने भारतीय ज्ञानपीठ, काशी द्वारा १९७१ ई० में प्रकाशित अमोघवृत्ति सहित शाकटायन व्याकरण की अपनी अंग्रेजी प्रस्तावना में प्रस्तुत किया है। वे लिखते हैं कि १८६४ में डॉ० बुहलर को जब आचार्य पाल्यकीर्ति द्वारा विरचित शाकटायन, को पाण्डुलिपि का कुछ अंश प्राप्त हुआ तो उन्होंने संस्कृत जगत् को सूचित किया कि उन्हें पाणिनि द्वारा उल्लिखित शाकटायन व्याकरण
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