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( ५० ) का प्रतिपादन प्रतिवादित नहीं रह गया था। इसके पूर्व स्मृतियों तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों में शूद्रों का कर्त्तव्य द्विजातिशुश्रूषा तक सीमित था। कृषि कर्म वैश्यों की सम्पत्ति थी। द्वितीय-राम नाम की महत्ता का प्रतिपादन शम्बक के कथानक में किञ्चित परिवर्तन कर इस ग्रन्थ में उपस्थापित किया गया है। आनन्दरामायण की रचना के समय ( लगभग सोलहवीं शताब्दी ) तक भक्ति-आन्दोलन विशेषतः वैष्णव-आन्दोलन प्रमुखता को प्राप्त होने लगा था और उसके परिणामस्वरूप आनन्द रामायण में शग्बूक कथानक में ये परिवर्तन उपस्थित हो गये।
दक्षिण भाषाओं में निबद्ध राम कथा से संबन्धित ग्रन्थों से भी शम्बूक आख्यान उपलब्ध होता है। रंगनाथ रामायण१३ ( तेलगू में रचित ) तथा कन्नड़ में लिखित तोरवे रामायण में शम्बूक को सूर्पनखा का पुत्र तथा लक्ष्मण द्वारा उसके वध की चर्चा आती है । निश्चित रूप से दोनों ग्रन्थों पर या तो पउमचरियं (विमलसूरिकृत) या रविषेणकृत पद्मपुराण का प्रभाव लक्षित होता है। कन्नड़ कवि कुवेंयु१५ द्वारा रचित 'शूद्रतपस्वी" काव्य में वर्णित शम्बूक कथा विचार्य है इसके अनुसार "एक वृद्ध ब्राह्मण अपने पुत्र के साथ शम्बूक नामक तपस्वी के आश्रय में पहुँचा। ब्राह्मण ने अपने पुत्र को तपस्वी के लिए प्रणाम करने से वजित कर दिया क्योंकि तपस्वी शूद्र था। इसके परिणामस्वरूप ब्राह्मण बालक की मृत्यु सर्पदंश के कारण हो गई। ब्राह्मण ने राम से उस तपस्वी के वध का अनुरोध किया। राम ने ब्रह्मास्त्र चलाकर तपस्वी का वध करने का प्रयास किया किन्तु उसे कोई क्षति नहीं हुई। फलतः राम ने ब्राह्मण को दोषी जानकर उसे कट शब्दों में प्रताड़ित किया । अन्त में ब्राह्मण ने उस शद्र तपस्वी को प्रणाम किया और उसका पुत्र जीवित हो उठा। इस कथानक में स्पष्ट ही तप की महिमा के समक्ष ब्राह्मण की उत्कृष्टता तथा शूद्र की निकृष्टता को तिरोहित कर दिया गया है।
इस प्रकार शम्बूक आख्यान के विवेचन से स्पष्ट है कि समय-समय पर इस कथानक का कलेवर सोद्देश्य परिवर्तित, परिवधित तथा सीमित किया जाता रहा। यदि वाल्मीकि और उनके अनुकर्ताओं ने ब्राह्मणों
की सर्वोच्चता के प्रतिपादन हेतु इसका निबंधन किया तो जैनियों ने . समता के भाव को तथा अहिंसा को प्रतिष्ठित करने के लिए इस कथा
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