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________________ ( ४७ ) प्रमाण उपस्थित करती है। राम ने ब्रह्मर्षि नारद से इसका कारण पूछा । नारद ने शूद्र के द्वारा क्रियमाण तपोनुष्ठान को ब्राह्मणसूत की मृत्यु का कारण बताया। क्योंकि शूद्र को तप करने का अधिकार नहीं था। अतः उसके द्वारा तपस्याचरण धार्मिक कर्तव्यों के उल्लंघन का प्रतीक था । नारद के द्वारा कारण ज्ञात होने पर राम ने शूद्र के अन्वेषण हेतु प्रस्थान किया। क्रमशः उदीच्य, प्राच्य दिशाओं में भ्रमण करने के पश्चात् दक्षिण दिशा में शैवल पर्वत के उत्तर में उन्होंने अधःमुख तपसंलग्न एक व्यक्ति को देखा जो अग्निधूम का आहार करता हुआ तपस्लीन था। तपस्वी के द्वारा यह ज्ञात होने पर कि वह शूद्र-योनि में उत्पन्न शम्बूक संज्ञित व्यक्ति है, राम ने खड़ग से उसका शिरोच्छेद कर दिया।"२ महाकवि कालिदास-प्रणीत रघुवंश में शम्बक का आख्यान वाल्मीकि के आधार पर हो वणित है। इसमें भी पिता के जीवित रहते पुत्र की मृत्यु का कारण वर्ण-धर्म व्यतिक्रम स्वीकार किया गया है जो शम्वूक नामक शूद्र के तपश्चरण के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ था। वर्ण विक्रिया के लिए उत्तरदायी शम्बूक, शासक राम के द्वारा शिरोच्छेदन के पश्चात् स्वर्ग को प्राप्त हो गया जो उसे तप के माध्यम से कभी न मिलता । भवभूति ने तो उपयुक्त दोनों कवियों की सीमा लाँघकर राम के द्वारा दण्डित किए जाने पर आक्रोश की अपेक्षा शूद्र के ही मुख से उस दण्ड की प्रशंसा भी कराई है। _वर्ण व्यवस्था के पोषक इन कवियों के द्वारा वर्णित शम्बूक आख्यान में अनेक महत्त्वपूर्ण कथ्य ध्यातव्य हैं। शूद्र के द्वारा तपश्चरण को "पापवत्" स्वीकार करने की बलात् चेष्टा इन कवियों के द्वारा की गई है और उस पाप के फल को साकार सिद्ध करने के लिए विप्र पिता के जीवित रहने पर भी पुत्र की मृत्यु का प्रसंग उपस्थित कर दिया गया है । यह विचारणीय है कि वाल्मीकि रामायण में ही अन्यत्र नृप दशरथ के द्वारा पिता और माता के जीवित रहने पर भी पूत्र श्रवण के वध का प्रसंग उपस्थित मिलता है। किन्तु उस स्थल पर पिता के समक्ष पुत्र की मृत्यु का प्रसंग शासन में अधर्माचरण का प्रतीक नहीं स्वीकार किया गया। इन कवियों को शुद्र की तपस्या का प्रतिरोध करना था अस्तु, उन्होंने एक कथानक की उद्भावना कर लो। ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003193
Book TitleJain Sahitya ke Vividh Ayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1981
Total Pages90
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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