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________________ ७६ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना हुई । असोम करुणा और मानवीय स्नेह के अजस्र स्रोत ने कितने ही पतित, अधम एवं दुष्ट जीवों का उद्धार किया, उनकी रक्षा की । स्वयं स्वयं के निर्माता : साधना काल में उन्होंने जितने कष्टों एवं पीड़ाओं का सामना किया, उतना शायद किसी अन्य अर्हत्-तीर्थंकर ने अपने जीवन में नहीं किया । देहातों एवं जंगलों में अज्ञान ग्वालों, चरवाहों और जंगलवासियों ने उन्हें कितनी ही बार बुरी तरह पीटा, अनेक यंत्रणाएँ दीं, कठोर ताड़नाएँ दीं । एकबार ध्यानस्थ महावीर से किसी ग्वाले ने कहा - " बाबा ! मेरे बैलों की देखभाल रखना, मैं जरा गाँव में जाकर आता हूँ ।" महावीर ध्यानस्थ थे, बैल चरते चरते कहीं दूर निकल गये । ग्वाला लौट कर आया, और बैल दिखाई नहीं दिए तो महावीर को ही चोर समझ कर ताड़ना करने लगा । उसने रस्सी के निर्मम प्रहारों से इतने जोर से ताड़ना दी कि रस्सियों के दाग उसकी हथेलियों में भी गुद गए । इस घटना के बाद देवराज इन्द्र ने श्रमण महावीर से प्रार्थना की — "देवार्य ! ये अज्ञान मनुष्य आपके अलौकिक माहात्म्य को नहीं समझकर आपको ताड़ना तर्जना दे रहे हैं, । कृपया मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं सतत आपकी सेवा में रह कर इन आगत कष्टों का निवारण करता रहूँ ।' 11 महाश्रमण ने देवराज को जो उत्तर दिया, वह जैन साहित्य का अद्वितीय सुभाषित होगया है, दुर्बल निराश जनजीवन के लिए चिरकाल से एक महान् प्रेरणादायी सूक्त बन गया है - "स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्रा परमां गतिम् । " - "किसी अन्य के आश्रय एवं पुरुषार्थ के भरोसे कोई भी आत्मा आज तक बोधिलाभ केवल ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका । अपने ही पुरुषार्थ पर अपना निर्माण किया जा सकता है ।" यह है महावीर के पुरुषार्थ एवं स्वालम्बन का उत्कृष्ट आदर्श ! सेवा, समता, साहस, करुणा, स्नेह, स्वावलंबन, आत्मनिष्ठा और अखण्ड मनोबल ये ही वे दिव्य सीढ़ियाँ हैं जिन पर बढ़ती हुई Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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