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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
हुई । असोम करुणा और मानवीय स्नेह के अजस्र स्रोत ने कितने ही पतित, अधम एवं दुष्ट जीवों का उद्धार किया, उनकी रक्षा की । स्वयं स्वयं के निर्माता :
साधना काल में उन्होंने जितने कष्टों एवं पीड़ाओं का सामना किया, उतना शायद किसी अन्य अर्हत्-तीर्थंकर ने अपने जीवन में नहीं किया । देहातों एवं जंगलों में अज्ञान ग्वालों, चरवाहों और जंगलवासियों ने उन्हें कितनी ही बार बुरी तरह पीटा, अनेक यंत्रणाएँ दीं, कठोर ताड़नाएँ दीं ।
एकबार ध्यानस्थ महावीर से किसी ग्वाले ने कहा - " बाबा ! मेरे बैलों की देखभाल रखना, मैं जरा गाँव में जाकर आता हूँ ।" महावीर ध्यानस्थ थे, बैल चरते चरते कहीं दूर निकल गये । ग्वाला लौट कर आया, और बैल दिखाई नहीं दिए तो महावीर को ही चोर समझ कर ताड़ना करने लगा । उसने रस्सी के निर्मम प्रहारों से इतने जोर से ताड़ना दी कि रस्सियों के दाग उसकी हथेलियों में भी गुद गए ।
इस घटना के बाद देवराज इन्द्र ने श्रमण महावीर से प्रार्थना की — "देवार्य ! ये अज्ञान मनुष्य आपके अलौकिक माहात्म्य को नहीं समझकर आपको ताड़ना तर्जना दे रहे हैं, । कृपया मुझे आज्ञा दीजिए कि मैं सतत आपकी सेवा में रह कर इन आगत कष्टों का निवारण करता रहूँ ।'
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महाश्रमण ने देवराज को जो उत्तर दिया, वह जैन साहित्य का अद्वितीय सुभाषित होगया है, दुर्बल निराश जनजीवन के लिए चिरकाल से एक महान् प्रेरणादायी सूक्त बन गया है - "स्ववीर्येणैव गच्छन्ति जिनेन्द्रा परमां गतिम् । " - "किसी अन्य के आश्रय एवं पुरुषार्थ के भरोसे कोई भी आत्मा आज तक बोधिलाभ केवल ज्ञान प्राप्त नहीं कर सका । अपने ही पुरुषार्थ पर अपना निर्माण किया जा सकता है ।"
यह है महावीर के पुरुषार्थ एवं स्वालम्बन का उत्कृष्ट आदर्श ! सेवा, समता, साहस, करुणा, स्नेह, स्वावलंबन, आत्मनिष्ठा और अखण्ड मनोबल ये ही वे दिव्य सीढ़ियाँ हैं जिन पर बढ़ती हुई
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