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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना जो मस्ती है, वह भोग में मिल ही नहीं सकती, क्योंकि भोग पराश्रित है और त्याग स्वाश्रित है। भोग के साथ रोग या दुःख लगा हुआ है । अतिमात्रा में भोग करने से रोग हो जाता है । शारीरिक, मानसिक क्षति होती है, और अन्त में भोगों के प्रति अरुचि हो जाती है।
भोग के साधन जुटाने में भी बड़ा परिश्रम करना पड़ता है। उसके संरक्षण की चिन्ता बनी रहती है और नष्ट हो जाने पर अभाव या वियोगजन्य दुःख का अनुभव तो सभी करते ही हैं। भोग के साथ उपाधि, आधि और ब्याधि-तीनों लगे रहते हैं । इसलिए विषय-भोगों को ज्ञानी पुरुषों ने त्यागा। उनको सारे साधन और सुविधाएँ प्राप्त थीं-तीर्थंकर राजाओं के यहाँ जन्म लेते हैं, उनके लिए भोगों के सभी साधन सूलभ होते हैं, पर वे उन्हें छोड़कर त्यागमार्ग स्वीकार करते हैं।
भारतोय-परम्परा में मानव-जीवन को चार आश्रमों में विभक्त किया गया है-ब्रह्मचर्य आश्रम, गृहस्थ आश्रम, वानप्रस्थाश्रम तथा संन्यासाश्रम। १०० वर्षों की आयु मानकर प्रथम २५ वर्ष में विद्याध्ययन तथा शारीरिक एवं मानसिक विकास में लगाने का विधान है। फिर धनोपार्जन, विवाह और कुटम्ब आदि पालनरूप गृहस्थाश्रम में रहकर अन्त में भोगों से निवृत्त होकर त्यागमय और सेवामय जीवन अपनाया जाता है। वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम क्रमशः त्याग की बढ़ती हुई भूमिका है । समस्त वस्तुओं का ही नहीं, इच्छाओं, आकांक्षाओं, वासनाओं का त्याग करके जब मनुष्य आत्मनिष्ठ हो जाता है, तभी साधनामय जीवन बिताते हुए सिद्धि प्राप्त कर सकता है। ___ भारतीय धर्मों में तपस्या को बहुत महत्त्व दिया गया है । तप का अर्थ है-इच्छाओं का निरोध कर अपनी समस्त शक्ति को साधना में लगा देना, तपा देना। तप दो प्रकार का होता है-बाह्य और आभ्यंतर । बाह्य तप में चारों प्रकार के आहारों का सीमित या दीर्घकालीन त्याग या आंशिक अथवा पूर्णतया त्याग होता है । वह इसलिए किया जाता है कि बिखरी हुई सारी शक्तियों को साधना में केन्द्रित किया जा सके । खाने-पीने के साधन जुटाने और तत्सम्बन्धी क्रियाओं के करने में जो श्रम, समय और शक्ति लग रही है, वह आध्यात्मिक साधना में लगाई जा सके, तो साधना में गति, स्फूर्ति एवं शक्ति बढ़ेगी।
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