SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना यदि तुम्हारा शत्रु तुम्हें मारने को आए और वह भूखा-प्यासा तुम्हारे घर पहुँचे, तो उसे खाना दो, पानी दो । ३६ यदि कोई आदमी संकट में है, डूब रहा है, उस पर दस्यु- डाकू या हिंसक शेर चीते आदि हमला कर रहे हैं, तो हमारा कर्त्तव्य है कि हम उसकी रक्षा करें। प्राणिमात्र के प्रति निर्वैरभाव रखने की प्रेरणा प्रदान करते हुए यह बतलाया गया है कि - अपने मन में किसी के भी प्रति वैर का दुर्भाव मत रखो । ७ ५८ पारसी और ताओ धर्म में अहिंसा - भावना : पारसी धर्म के महान प्रवर्तक महात्मा जर स्ट ने कहा है कि"जो सबसे अच्छे प्रकार की जिन्दगी गुजारने से लोगों को रोकते हैं, अटकाते हैं और पशुओं को मारने की सिफारिश करते हैं, उनको अहुरमज्द बुरा समझते हैं । 36 अतः अपने मन में किसी से बदला लेने की भावना मत रखो। बदले की भावना तुम्हें लगातार सताती रहेगी ! अतः दुश्मन से भी बदला मत लो । बदले की भावना से प्रेरित होकर कभी कोई पापकर्म मत करो । मन में सदा-सर्वदा सुन्दर विचारों के दीपक सँजोए रखो । ताओ धर्म के महान् प्रणेता - लाओत्से ने अहिंसात्मक विचारों को अभिव्यक्त करते हुए कहा है कि - जो लोग मेरे प्रति अच्छा व्यवहार नहीं करते, उनके प्रति भी मैं अच्छा व्यवहार करता हूँ ।" कनफ्यूस धर्म के प्रवर्त्तक कांगफ्युत्सी ने कहा है कि - "तुम्हें जो चीज नापसन्द है, वह दूसरे के लिए हर्गिज मत करो। " उपर्युक्त विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि श्रमण संस्कृति के मूल संस्थापक भगवान् ऋषभदेव ने अहिंसा का जो बीज बोया तथा अन्तिम तीर्थंकर भ० महावीर ने जिसे पल्लवित, पुष्पित एवं फलित किया, उसे विश्व के समस्त धर्मों ने अपने धर्म का अन्तहृदय के रूप में अंगीकार किया । अतः श्रमण संस्कृति की अमर देन - अहिंसा वह महान शक्ति है, जो विश्व के समस्त धर्मों को पारस्परिक ऐक्य सूत्र में संबद्ध करने में सहज समर्थ है। यह विश्व के समस्त धर्मों को श्रमण संस्कृति की महान् देन है पाध्याय अमरमुनि ३६. नीति, ३७. तोरा ३८. गाथा ३६. लाओ तेह किंग । Jain Education International - २५।२१ परमिदास — लैव्य व्यवस्था १६ १७ - हा० ३४, ३ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy