________________
श्रमण संस्कृति का अहिंसा दर्शन एवं विश्वधर्म-समन्वय ५१ विभिन्न धर्मों में अहिंसा-भावना
अहिंसा की परिधि के अन्तर्गत समस्त धर्म और समस्त दशन समवेत हो जाते हैं। यही कारण है कि प्रायः सभी धर्मों ने इसे एक स्वर से स्वीकार किया है। हमारे यहाँ के चिन्तन में, समस्त धर्मसम्प्रदायों में अहिंसा के सम्बन्ध में, उसकी महत्ता और उपयोगिता के सम्बन्ध में दो मत नही हैं, भले ही उसकी सीमाएँ कुछ भिन्न-भिन्न हों। कोई भी धर्म यह कहने के लिए तैयार नहीं कि झूठ बोलने में धर्म है, चोरी करने में धम है या अब्रह्मचर्य सेवन करने में धर्म है। जब इन्हें धर्म नहीं कहा जा सकता, तो हिंसा को कैसे धर्म कहा जा सकता है ? हिंसा को हिंसा के नाम से कोई स्वीकार नहीं करता । अतः किसी भी धर्मशास्त्र में हिंसा को धर्म और अहिंसा को अधर्म नहीं कहा गया है। सभी धर्मों ने अहिंसा को ही परम धर्म स्वीकार किया है। जैनधर्म में अहिंसा-भावना :
आज से पच्चीस-सौ वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने अहिंसा को नींव को सुदृढ़ बनाने के लिए, हिंसा के विरोध में क्रांति की। अहिंसा और धर्म के नाम पर हिंसा का जो नग्न नृत्य हो रहा था, जनमानस भ्रान्त किया जा रहा था, वह भगवान महावीर से देखा नहीं गया। उन्होंने हिंसा पर लगे धर्म और अहिंसा के मुखौटों को उतार फेंका और सामान्य जनमानस को उद्बुद्ध करते हुए कहा'हिंसा कभी भी धर्म नहीं हो सकती । विश्व के सभी प्राणी-वे चाहे छोटे हों, या बड़े, पशु हों या मानव, सभी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता। सबको सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है। सबको अपना जीवन प्यारा है १२ । जिस हिंसक व्यापार को तुम अपने लिए पसन्द नहीं करते, उसे दूसरा भी पसन्द नहीं करता। जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सभी पसंद करते हैं। यही जिन शासन के
११. सव्वे जीवावि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउ ।
-दशवकालिक सूत्र ६।११ १२. सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुहपडिकूला। -आचारांग सूत्र १।२।३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org