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श्रमण संस्कृति का अहिसा दर्शन एवं विश्वधर्म-समन्वय ४६ कर लिया है । हम यह मानते हैं कि युद्ध-वर्जन-संधि जहाँ भी हो, उसका स्वागत किया जाएगा, क्योंकि उससे युद्ध का खतरा कम होता है।"
इस प्रकार हम देखते हैं कि विश्व के महान् शक्तिशालो एवं आणविक शक्ति सम्पन्न राष्ट्र भी अपनी राजनीति में प्रधानतः अहिंसा को ही स्थान देते हैं। विश्वबन्धुत्व, विश्वशांति और अहिंसा :
इससे यह स्पष्ट है कि अहिंसा विश्वशांति का सबसे सुगम एवं श्रेष्ठ पथ है। जैसा कि हम पहले कह आये हैं, विश्व में जब-जब युद्ध की भयानक लीला से मानव संत्रस्त हआ है, उसने शांति की तलाश अहिंसा के पथ से को है और यह निश्चय है कि तब अहिंसा ने ही उन्हें सही अर्थ में शांति प्रदान भी की है।
अहिंसा वह महान् शक्ति है, जो विश्व के समग्र चैतन्य को एक धरातल पर ला खड़ी करती है। अहिंसा समग्र जीवन में एकता देखती है, सब प्राणियों में समानता पाती है। इसी दृष्टि को स्पष्ट करते हुए भगवान् महावीर ने कहा था कि-"आत्मा एक है, एक रूप है, एक समान है। चैतन्य में जाति, कुल, समाज, राष्ट्र, स्त्री, पुरुष आदि के रूप में जितने भी भेद हैं, ये सभी आरोपित भेद हैं, बाह्य निमित्तों के द्वारा परिकल्पित किए गए मिथ्या भेद हैं। आत्माओं के अपने मूल स्वरूप में कोई भेद नहीं है और जब कोई भेद नहीं है, तो फिर मानव जाति में कलह एवं विग्रह कैसा? त्रास एवं संघर्ष कैसा ? घृणा एवं वैर कैसा? यह सब भेदबुद्धि की देन है।" ___ आज जो विश्वनागरिकता की कल्पना कुछ प्रबुद्ध मस्तिष्कों में उड़ानें ले रही है, 'जयजगत्' का जो उद्घोष कुछ समर्थ चिन्तकों की जिह्वा से उच्चरित हो रहा है, उसको मूर्तरूप देना अहिंसा के द्वारा ही संभव है। इसके अतिरिक्त दूसरा कोई आधार ही नहीं है, जो विभिन्न परिकल्पनाओं के कारण खण्ड-खण्ड हई मानव जाति को एकरूपता दे सके। प्रत्येक मानव के अपने सृजनात्मक स्वातंत्र्य एवं मौलिक अधिकारों को सुरक्षा की गारंटी, जो विश्वनागरिकता
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