SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 236
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भा. भाषा एवं साहित्य में श्रमण संस्कृति के स्वर २२३ सर्जना हुई है, जो कि महत्त्वपूर्ण है । ये लघुकाव्य हैं-यशोधर काव्य, चूलामणि, उदयन् कथै, नागकुमार काव्य और नीलकेशि । ___उपर्युक्त ग्रंथों के अतिरिक्त अनेरिच्चारम्, पलनोलि आदि नीति ग्रंथ; मेरुमंदरपुराणम्, श्रीपुराणम् आदि पुराण ग्रंथ; यप्परंगुलक्करिकै, यप्परंगुल वृत्ति, नेमिनाथम, और नानुल आदि व्याकरण-ग्रंथ; अच्चनंदिमाल आदि छंदशास्त्र और जिनेन्द्रमालै आदि ज्योतिषग्रंथ भी जैन साहित्यकारों की तमिल भाषा में महत्त्वपूर्ण कृतियाँ मानी जाती हैं 130 कन्नड़ भाषा और साहित्य द्राविड़-भाषा-परिवार की भाषाओं में कन्नड़ सबसे अधिक समृद्ध भाषा है। यहाँ इतना जान लेना आवश्यक है कि कन्नड़ भाषा को प्रौढ़ साहित्यिक रूप प्रदान करने में जैन साहित्यकारों को ही सर्वाधिक श्रेय प्राप्त है। यदि कन्नड़ भाषा में से जैन साहित्य को निकाल दिया जाए, तो कन्नड़ भाषा का प्राचीन काल एक तरह से समाप्त ही हो जाए। "लगभग ईस्वी छठी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक सात-आठ सौ वर्ष सम्बन्धी जैनों के अभ्युदय-प्राप्तिनिमित्त जो वाङमय है, उसका अवलोकन करना समूचित है। तत्कालीन करीब २८० कवियों में ६० कवियों को स्मरणीय एवं सफल मान लेने पर इनमें ५० जैन कवियों के नाम ही हमारे सामने आ उपस्थित होते हैं। इन ५० कवियों में ४० कवियों को निः पन्देह हम प्रमुख मान सकते हैं। लौकिक चरित्र. तीर्थंकरों के पारमार्थिक पुराण और दाशिनक आदि अन्यान्य ग्रंथ भी जैनों के द्वारा ही जन्म पाकर कन्नड़ साहित्य पर अपना शाश्वत प्रभाव जमाए हुए हैं ।" ३१ कन्नड़ भाषा के साहित्य को काल की दृष्टि से प्राचीनकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल-के रूप में प्रमुखतः तीन कालों में विभाजित कर सकते हैं। प्राचीन काल-(छठी शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक), ३०. सुनि बुद्धमल : भारतीय भाषाओं में जैन साहित्यकारों की देन, पृ० ३६ ३१. शेष बी० पारिशवाड़े Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy