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भा. भाषा एवं साहित्य में श्रमण संस्कृति के स्वर
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पुरानी राजस्थानी का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह संवत् १२४१ की रचना है। तेरहवीं शताब्दी में बुद्धिरास, जंबू स्वामी चरित, स्थलिभद्ररास, रेवंत गिरि रासो, आबूरास, जीवदया रासु तथा चंदनबाला रास उल्लेखनीय कृतियाँ हैं । चौदहवीं शताब्दी में नेमिनाथ चतुष्पिका, सप्तक्षेत्रि रासु, जिनेश्वर सूरि दीक्षा-विवाह वर्णना रास सम्यक्त्व माई चउपई ,समरारासो,श्री स्थूलिभद्र फाग, चर्चरिका, सालिभद्र कक्क, दूहा मातृका आदि कृतियाँ प्रमुख हैं।
पन्द्रहवीं शताब्दी में जिन कवियों ने अपनी रचनाओं द्वारा राजस्थानी को गौरवान्वित किया उनमें सर्वश्री तरुणप्रभ सूरि, विनय प्रभ, मेरुनन्दन, राजशेखर सूरि, शालिभद्र सूरि, जयशेखर सूरि, हीरानन्द सूरि, रत्नमंडण गणि तथा जयसागर के नाम उल्लेखनीय हैं। __ सोलहवीं शताब्दी में महोपाध्याय जयसागर दरड़ा गोत्रीय का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। उनकी 'जिनकुशल सूरि सप्ततिका' का तो बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने छोटीबडी ३२ कृतियों की रचना की। इनके अतिरिक्त राजस्थानी साहित्य की श्री वृद्धि करने वाले कृतिकारों में सर्वश्री देपाल, ऋषिवर्द्धन सूरि, मति शेखर, पद्मनाभ, धर्म समुद्रगणि, सहजसून्दर, पार्श्वचन्द्र सरि, छीहल, विनय समुद्र, राजशील आदि के नाम उल्लेखनीय हैं । ___ सत्रहवीं शताब्दी में सर्वश्री पुण्यसागर, कुशलप्रभ, मालदेव, हीरकलश, कनकसोम, हेमरत्न सूरि, उपाध्याय गुण विजय, समय सुन्दर आदि के नाम विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इनके अतिरिक्त जिन कवियों के नाम उल्लेखनीय हैं, उनमें सर्वश्री विजयदेव सूरि, जयसोम, नयरंग, कल्याणदेव, सारंग, मंगल-माणिक्य, साधू कीति, धर्मरत्न, विजय शेखर तथा चरित्र सिंह आदि के नाम लिये जा सकते हैं ।
अठारवीं शती में रास, चौपई के अतिरिक्त लावनी, छत्तीसी, बत्तीसी आदि काव्यरूपों में भी प्रचुर परिमाण में रचनाएं हुई। इस काव्य के सर्जकों में कविवर जिनहर्ष का स्थान प्रमुख है। इन्होंने एक लाख पद्यों को रचना रास, चौपई, वार्तासूत्र, दशवकालिक गीत आदि के रूप में की, बताया जाता है। इनके अतिरिक्त महोपाध्याय लब्धोदय, मर्मवर्धन लाभवर्द्धन, कुशलधीर,
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