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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना
वैशाली होते हुए केशरिया, अरेराज लौरिया, बेतिया, नन्दनगढ़लौरिया होकर कुशीनगर तक एक राजमार्ग बनवाया, क्योंकि इसी मार्ग से भगवान् बुद्ध महापरिनिर्वाण के लिए कुशीनगर गए थे । ईसा की पहली शताब्दी में कुशान वंश के सम्राट् कनिष्क ने वैशाली से भगवान् बुद्ध का भिक्षा पात्र लेकर गंधार में स्थापित किया । वर्द्धन साम्राज्य में भी बिहार श्रमण-संस्कृति - विशेषकर बौद्ध-धर्म-दर्शन - के क्षेत्र में बड़ा ही सक्रिय योगदान देता रहा । हर्षवर्द्धन का राज्य चारों तरफ फैला था और बिहार उस समय भी बौद्ध धर्म के विकास में लगा रहा । नालंदा और विक्रमशिला बहुत दिनों तक बौद्ध धर्म के केन्द्र बने रहे। आगे चलकर जब बौद्ध धर्म हीनयान और महायान में बँट गया और फिर तन्त्रयान, मन्त्रयान और बज्रयान के नाम से अनेक शाखाएँ- प्रशाखाएँ फूटीं, उन दिनों भी बिहार बौद्ध धर्म का गढ़ रहा । सिद्धों के युग में पहुँचने पर पता चलता है कि ८४ सिद्धों में अधिकांश बिहार के ही विक्रमशिला, नालन्दा, मगध, वैशाली और मिथिला के थे । सरहपा, शबरपा, भूसुकपा, कर्णरीपा, लूईपा, विरूपा, डोम्बिपा, महीपा, तिलोपा, शांतिपा आदि बिहार के ही थे ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि श्रमण संस्कृति के उदभव और विकास में प्रारम्भ से ही बिहार आगे रहा है । इतिहासकारों और विद्वानों ने एक स्वर से इस बात को दुहराया है कि बिहार की भूमि क्रान्ति की भूमि रही है, और धर्म तथा दर्शन के क्षेत्र में यह सबसे आगे रही है | पं० हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक 'हिन्दी-साहित्य की भूमिका' पृष्ठ २६ में लिखा है - "यह भी ध्यान में रखने की बात है कि पूर्वी प्रदेश में भारतीय इतिहास के आदिकाल से रूढ़ियों और परम्पराओं के विरुद्ध विद्रोह करने वाले सन्त होते रहे हैं वैदिक कर्मकाण्ड के मृदु विरोधी जनक और याज्ञवल्क्य तथा उग्र विरोधी बुद्ध और महावीर आदि आचार्य इन्हीं पूर्वी प्रदेशों में उत्पन्न हुए थे ।" वास्तव में बिहार की क्रान्ति-भूमि पर श्रमण संस्कृति के दो विशाल वट-वृक्ष उगे - वैशाली में जैनधर्म का वटवृक्ष और मगध में बौद्ध धर्म का वट-वृक्ष, जिनकी शाखाएँ- प्रशाखाएं सारे संसार में फैली और आज भी अपनी सुरभि से सम्पूर्ण विश्व को सुरभित कर रही हैं ।
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