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________________ १७७ गीता और श्रमण संस्कृति : एक तुलनात्मक अध्ययन १७७ हुए, सोते हुए और साँस लेते हुए वह यही समझता है कि 'मैं कुछ नहीं कर रहा।'६६ बोलते हुए, विसर्जन करते हुए, पकड़ते हुए, यहाँ तक कि निमेष और उन्मेष करते हुए भी वह यह समझता है कि केवल इन्द्रियाँ इन्द्रियों के विषयों में लगी हुई हैं।६७ योगी लोग ( कर्मयोगी) आसक्ति को त्याग कर आत्मा की शुद्धि के लिए केवल शरीर, मन, बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा कार्य करते हैं । ६८ योग में लगी हुई आत्मा कर्म के फलों में आसक्ति को त्याग कर दृढ़ आधार वाली शान्ति को प्राप्त करती है ।६९ ज्ञान, भक्ति और कर्म को एकरूपता : ___ संक्षेप में यों समझा जा सकता है कि जिसने योग द्वारा सब कर्मों को त्याग दिया है, जिसने ज्ञान द्वारा सब संशयों को नष्ट कर दिया है और जिसने अपनी आत्मा पर अधिकार कर लिया है, उसको कर्म बन्धन में नहीं डालते।७० उस परमात्मभाव का विचार करते हुए, अपनी सम्पूर्ण चेतनसत्ता को उसकी ओर प्रेरित करते हुए, उसे अपना सम्पूर्ण उद्देश्य बनाते हुए, उसे अपनी भक्ति का एकमात्र लक्ष्य बनाते हुए, वे ज्ञानी पुरुष उस दशा तक पहुँच जाते हैं, जहाँ से वापस नहीं लौटना होता, और उनके पाप ज्ञान द्वारा धुलकर साफ हो जाते हैं । ७१ इस प्रकार अन्त में जाकर ज्ञान, श्रद्धा (भक्ति) और कर्म परस्पर मिल जाते हैं। जैन-साधना-पद्धति : जैन-दर्शन साधना का दर्शन है। साधना का साध्य है मोक्ष, ६६. नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् । -५२८ ६७. प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि । इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ।। - ९ ६८. कायेन मनसा आत्मशुद्धये ॥ --५।११ ६६. युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।। -५॥१२ ७०. योगसंन्यस्त कर्माणं ज्ञानसंछिन्नसंशयम् । आत्मवन्तं न कर्माणि निबघ्नन्ति धनंजय ।। –४४१ ७१. तद्बुद्ध्यस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः । गच्छन्त्यपुनरावृत्ति ज्ञाननिधू तकल्मषाः ।। -५१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003192
Book TitleShraman Sanskruti Siddhant aur Sadhna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalakumar
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1971
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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