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श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना हो सम्पूर्ण कर्म भस्म हो जाते हैं ( ४।३७ ) और यदि द्रव्यमय यज्ञ को अपेक्षा ज्ञानयज्ञ हो श्रेष्ठ है ( ४।३३ ) ६२ तो फिर कर्म को महत्ता पर बल क्यों दिया गया है ? कर्म की पद्धति को आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सहायक अङ्ग के रूप में प्रस्तुत क्यों किया गया है ? यही प्रश्न ५ वें अध्याय के प्रारम्भ में अर्जुन ने श्रीकृष्ण से पूछा है । उत्तर देते हुए कृष्ण ने कहा : 'कर्मों का संन्यास और उनका निःस्वार्य रूप से करना, दोनों ही आत्मा को मुक्ति की ओर ले जाने वाले मार्ग हैं। परन्तु इन दोनों में कर्मों को त्याग देने की अपेक्षा कर्मों का निःस्वार्थ रूप से करना अधिक अच्छा है । ६ 3 दोनों मार्ग एक-दूसरे के विरोधी नहीं है। पहलो पद्धति ( सांख्य पद्धति) में हम विजातीय तत्त्वों को विचार द्वारा दूर हटाकर आत्मा का ज्ञान प्राप्त करते हैं; दूसरी पद्धति (योगपद्धति) में हम उन्हें संकल्पात्मक प्रयत्न द्वारा दूर हटा देते हैं। कर्मों का त्याग करने वाले मनुष्य जिस स्थिति तक पहुँचते हैं, कर्म करने वाले भी उसी स्थिति तक पहुँच जाते हैं। जो व्यक्ति इस बात को देख लेता है कि संन्यास और कर्म दोनों के मार्ग एक हो हैं; वही सही देखता है । ६४ सच्चा संन्यासी वह नहीं है, जो पूर्णतया निष्क्रिय रहता है, अपितु वह है, जो प्राप्त कर्मों को अनासक्ति की भावना से करता है। __जिस व्यक्ति ने कर्म मार्ग में प्रशिक्षण पाया है, जिसकी आत्मा शुद्ध है, जो अपनी आत्मा का स्वामी है, जिसने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया है, जिसकी आत्मा सब प्राणियों की आत्मा बन गई है, वह सब कर्म करता हुआ भी ( कर्मों के पुण्य-पाप से ) अलिप्त रहता है । ६५ देखते हुए, सुनते हए, छूते हुए, सूघते हुए, चखते हुए, चलते
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६२. श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञाज्ज्ञानयज्ञः परंतप !
सर्व कर्माखिलं पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ ६३. संन्यास: कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥ ६४. यत्सांख्यः प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते ।
एक सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति ॥ ६५. योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः । __ सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते ॥
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