________________
१०६ .
श्रमण संस्कृति : सिद्धान्त और साधना समभाव की उत्कृष्ट साधना करने लगा। उसकी साधना उच्च स्तर पर पहुँची। आनन्द को विशिष्ट अवधिज्ञान प्राप्त हुआ और अन्त में समाधिपूर्वक प्राण त्याग किया। . स्थितप्रज्ञ सुलसा :
राजगृह में एक 'नाग' नामक रक्षिक था। सुलसा उसकी धर्मपत्नी थी। पति-पत्नी दोनों ही भगवान महावीर के उपदेशों पर दृढ़ आस्था के साथ आचरण करते थे। सुलसा, धार्मिक श्रद्धा में नाग से भी आगे थी। उसके व्रतों को निमलता तथा सम्यकत्व की दृढ़ता के सम्बन्ध में अनेक जनश्रुतियाँ प्रसिद्ध थीं।
विवाह के अनेक वर्ष बीत जाने पर भी सूलसा की गोद खाली रही । इससे नाग गहस्थ उदविग्न रहने लगा। एकबार नाग ने किसी घर में बच्चों को हँसते-खेलते देखा, तो उनको मीठी किलकारियों से नाग का हृदय मचल उठा। पुत्र-अभाव से वह बुरी तरह पीड़ित हुआ । सुलसा ने उसका उदास चेहरा और मुरझाई हुई आँखें देखीं तो वह उसकी वेदना का कारण समझ गई । नाग चुपचाप देव-देवी एवं पण्डे-पूजारियों के पास चक्कर लगाता और पुत्र कामना के वश अनेक प्रकार के उपक्रम करता। यह देख सुलसा ने उसे एक दिन सान्त्वना के स्वर में कहा-"पतिदेव ! पुत्र का अभाव तो पुरुष से नारी को अधिक खलता है, पर उस वेदना में अपना धैर्य एवं विवेक नहीं खोना चाहिए। आप विज्ञ हैं, धर्मज्ञ हैं। पुत्र, यश, धन आदि सभी अपने कृत कर्म के अनुसार ही प्राप्त होते हैं-यह भी आप जानते हैं। फिर जिस वस्तु का हमें अन्तराय है, उसकी प्राप्ति के लिए यों बेचैन होना और अज्ञजनोचित उपक्रम करना कहाँ तक उचित है ? हमें अधिक से अधिक सेवा, दान, शील, तप आदि का अनुष्ठान करना चाहिए। हो सकता है, हमारा अन्तराय कर्म शिथिल हो तो अभिलषित वस्तु की प्राप्ति भी हो जाए।'
सुलसा ने आगे कहा- "मुझे लगता है, शायद मुझसे आपको पुत्र प्राप्ति न हो, अतः आप दूसरा विवाह करलें। संयोग-वियोग तो कर्मानुसार होते ही हैं, अतः हमें हर्ष, शोक से ऊपर उठकर धर्म-साधना में दत्तचित्त रहना चाहिए।"
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org