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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य
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सुख
को दो भागों में विभक्त किया है- एक इन्द्रियज सुख और दूसरा आत्मज सुख । मोक्षावस्था में इन्द्रिय और शरीर का अभाव होने से उसमें इन्द्रियज सुख का अभाव होता है, पर, आत्मजन्य सुख का अभाव नहीं है।
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मुक्त जोव क्या सर्वलोक-व्यापी हैं ? इस प्रश्न का चिन्तन करते हुए जैन मनोषियों ने लिखा है कि मुक्त जीव सर्वव्यापी नहीं हैं, क्योंकि सांसारिक जीव में जो संकोच और विस्तार होता है, उसका कारण शरीर नामकर्म है । पर, मोक्ष अवस्था में शरीर नामकर्म का पूर्ण अभाव होता है, इसलिये आत्मा सर्वलोकव्यापी नहीं है, क्योंकि कारण के अभाव में कार्य नहीं हो सकता । यहाँ पर यह भी सहज जिज्ञासा हो सकती है कि एक दीपक को ढक दिया जाय तो उसका प्रकाश सीमित हो जाता है, पर उस का आवरण हटते ही उसका प्रकाश सर्वत्र फैल जाता है, वैसे ही शरीर नामकर्म का अभाव होने से सिद्धों की आत्मा सम्पूर्ण लोकाकाश में फैल जानी चाहिये । उत्तर में जैन दार्शनिकों ने कहा- दीपक के प्रकाश का विस्तार स्वत: है ही, वह तो आवरण के कारण सीमित क्षेत्र में है, पर, आत्म-प्रदेशों का विकसित होना अपना स्वभाव नहीं है । जो विकसित होते हैं, वे भी सहेतुक हैं । अतः मुक्त जीव लोकाकाश प्रमाण व्याप्त नहीं होता । सूखी मिट्टी के बर्तन की भाँति मुक्त आत्मा में कर्मों के अभाव के कारण संकोच और विस्तार नहीं होता है । " मुक्तात्मा का आकार मुक्त शरीर से कुछ कम होता है । कारण कि चर्म शरीर के नाक, कान, नाखून आदि कुछ ऐसे पोले अंग होते हैं, जहाँ आत्म-प्रदेश नहीं होते । मुक्तात्मा छिद्ररहित होने से पहले शरीर से कुछ न्यून होती है, जैसे ५०० धनुष की अवगाहना वाले जो सिद्ध होंगे, उनकी अवगाहना ३३३ धनुष और ३२ अंगुल होगी। 5
१ (क) स्याद्वादमंजरी, कारिका १, ८, पृष्ठ ६० ; आचार्य मल्लिषेण (ख) षट्दर्शन - समुच्चय, पृष्ठ २८८
२ (क) सर्वार्थसिद्धि. १०/४, पृ. ३६०
३ (क) द्रव्यसंग्रह टीका, गा. १४; ५१, पृष्ठ ३६ (ख) परमात्मप्रकाश टीका गा. ५४ पृ. ५२
४ तत्त्वानुशासन २३२-२३३
५ (क) द्रव्यसंग्रह, टीका, गाथा १४
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(ख) तत्त्वार्थसार, ८ / ६-१६
(ख) तिलोयपण्णत्त ९ / १६
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