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४१४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
आत्मा पुनः संसार में नहीं आता । जैन दार्शनिकों ने अपने चिन्तन को परिपुष्ट करने के लिए लिखा है कि 'संसार के कारणभूत मिथ्यात्व अव्रत, प्रमाद, कषाय आदि का मुक्त जीव में अभाव है, अतः वे संसार में पुनः नहीं आते।' यदि मुक्त जीवों का संसार में आना माना जाये तो कारण और कार्य की व्यवस्था ही नहीं रहेगी । जो पुद्गल हैं, गुरुत्व स्वभाव वाले हैं, वे ही ऊपर से नीचे की ओर गमन करते हैं, पर मुक्तात्मा में यह स्वभाव नहीं है । मुक्तात्मा अगुरुलघु स्वभाव वाला है, इसलिये उसकी मोक्ष से च्युति नहीं होती । जो गुरुत्व स्वभाव वाले होते हैं. वे ही नीचे गिरते हैं । गुरुत्व स्वभाव के कारण ही आम का फल टहनी से गिरता है; नौकाओं में पानी भर जाने से वे डूबती हैं । 2 मुक्तात्मा सर्वज्ञ और सर्वदर्शी है, ज्ञाता और दृष्टा है, पर वीतरागी होने से न किसी के प्रति उनके अन्तमानस में राग होता है और न द्वेष ही होता है । राग और द्वेष का अभाव होने से उनमें कर्म बन्धन नहीं होता और कर्म - बन्धन नहीं होने से पुनः संसार में नहीं आते । ' एक बार आत्मा कर्म रहित हो गया, वह पुत कर्म से युक्त नहीं होता । जैसे एक बार मिट्टी के कणों से स्वर्ण-कण पृथक् हो गए, वे पुनः मिट्टी में नहीं मिलते, वैसे ही मुक्त जीव हैं । आकाश में अवगाहन शक्ति रही हुई है, अतः स्वल्प आकाश में भी अनन्त सिद्ध उसी प्रकार रहते हैं, जैसे हजारों दीपकों का प्रकाश स्वल्प स्थान में समा जाता है । इसी तरह मुक्त जीवों में परस्पर अविरोध है ।
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भारतीय दार्शनिक चिन्तकों का यह अभिमत है कि मोक्ष में दुःख का पूर्ण अभाव है, पर न्याय, वैशेषिक, प्रभाकर, सांख्य और बौद्ध दार्शनिक यह भी मानते हैं जिस तरह मोक्ष में दुःख का अभाव है, वैसे ही मोक्ष में सुख का भी अभाव है । पर, कुमारिल भट्ट जो वेदान्त दर्शन के एक जानेमाने हुए मूर्धन्य मनीषी दार्शनिक रहे हैं, उन्होंने और जैन दार्शनिकों ने मोक्ष में आत्मीय अतीन्द्रिय सुख का उच्छेद नहीं माना है । जैन दार्शनिकों
१ तत्त्वार्थ- वार्तिक १०/४/८ पृ. ६४३ २ (क) तत्त्वार्थसार ८/११-१२ ३ तत्त्वार्थ-वातिक १०/४/५-६ ४ दुः खात्यन्तसमुच्छ्दे सति प्रागात्मवर्तितः ।
सुखस्य मनसा मुक्तिमुक्तिरुक्ता कुमारिलैः ।।
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(ख) तत्त्वार्थ- वार्तिक १/९/८, पृ० ६४३
- भारतीय दर्शन : डॉ० बलदेव उपाध्याय, पृ० ६१२
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