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________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३६१ वैद्यक का ज्ञान और एक धातुविद् का बुद्धि कौशल, सामने आ जाता है। मद्यपान की दुर्दशा (पृ० ३६७) व मांस खाने के दुष्परिणाम (पृ० ४१३) से लेकर काम-क्रीड़ा (पृ० ५०४) जैसे प्रसंगों की, प्रसंगगत अपेक्षाओं को रखते हुए, वसन्त (पृ० ३८६), ग्रीष्म और वर्षा (पृ० ४५६) तथा शरद्-हेमन्त (पृ० ३३४) और शिशिर (पृ० ३८६) ऋतुओं का वर्णन भी दिल-खोलकर किया गया है। कथावर्णन में सिद्धर्षि ने नीतिवाक्यों/सूक्तियों का भी भरपूर प्रयोग किया है । 'लक्षणहीन मनुष्यों को चिन्तामणि रत्न नहीं मिलता' (पृ० १२१), 'सद्गुरु के सम्पर्क से कुविकल्प भाग जाते है' (पृ० ५७), 'पहिले जो दिया जाता है, वही मिलता है' (पृ० १००), धर्म के अतिरिक्त, सुख पाने का कोई दूसरा साधन नहीं है' (पृ० ५७), 'पति-पत्नी परस्पर अनुकूल हो, तभी प्रेम बना रहता है (प० १०६), 'जुओं से बचने के लिए कपड़ों का त्याग कौन बुद्धिमान करेगा (पृ ११४) 'मनीषियों को ऐसे कार्य सदा करने चाहिए, जिससे मन मुक्ताहार, बर्फ, गोदुग्ध, कुन्द पुष्प और चन्द्रमा के समान श्वेत एवं स्वच्छ हो जाये' (पृ० ११-१८ प्रस्तावना) जैसी लगभग २८० सूक्तियों का, पूरे ग्रन्थ में, इन्होंने प्रयोग किया है । उपमा और रूपकों की तो इतनी भार मार है कि शायद ही कोई पृष्ठ, इनसे अछूता बच पाया हो। 'भव-प्रपंच' का विस्तार और उसकी प्ररूपणा, प्रस्तुत ग्रन्थ का मुख्य-प्रतिपाद्य विषय है। वह भी, उपमानों के माध्यम से । इसलिए, सिद्धर्षि ने, संसारी स्थितियों, पात्रों और घटनाओं का जो बाह्य-परिवेश, अपनी लेखनी का विषय बनाया, उसकी चरितार्थता तब तक बिल्कुल ही बेमानी रह जाती, जब तक कि उसके विकास/विस्तार के मुख्य-निमित्त, अन्तरंग-परिवेश को, कलम की नौंक पर न बैठा लिया जाता। यह अन्तरंग परिवेश, यद्यपि स्वभावतः अमूर्त है, तथापि, मूर्त-संसार का कोई भी ऐसा कौना नहीं है, कोई भो घटना, पात्र और स्थिति नहीं है, जिसकी कल्पना तक, अन्तरंग-परिवेश के सहयोग/उपस्थिति के बगैर की जा सके ? इस अनिवार्यता के कारण, इस पूरे कथा ग्रन्थ में, जितने भी राजा/महाराजा, राजकुमार, राजकुमारियाँ, रानियाँ, महारानियाँ, उनकी सेना, सेवक/अनुचर, पारिवारिकजन और सामाजिक आदि-आदि सिद्धर्षि ने कल्पित किये, उससे कुछ अधिक ही, अन्तरंग-लोक में, ऐसे ही पात्रों की कल्पना करना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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