________________
३६०
जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
स्थिति (पृ० १०१), और चारों गतियों का (पृष्ठ ४१८) वर्णन, जीवात्मा के संसार-वृद्धि के कारणों के रूप में देखा/पढ़ा जा सकता है ।
जो व्यक्ति, परमात्म-स्वरूप की साकारता में आस्था रखते हैं, उनके लिए जिनपूजा (पृ० ४८६), जिनाभिषेक (पृ० २१८), साकार स्वरूपदर्शन की महिमा (पृ० ४८६), जिनशासन (पृ० ४५), चण्डिकायतन (पृ. ३६७), अतिशय वर्णन (पृ० ५६६), और आराधना वर्णन (पृ० ७६६) जैसे प्रसंग पठनीय हो सकते हैं।
साधु समाज के लिए साधु का स्वरूप (पृ० ४३६), साधु अवस्था (पृ० ५७६), साधु क्रिया (पृ. ६४१), साधु धर्म (पृ० ६३९), प्रव्रज्या विधि (पृ० ७३७), दीक्षा महोत्सव (पृ० २१७, २२८), आदि प्रसंग तो पठनीय हैं हीं, इनके साथ-साथ, अपने आचरण की प्रखरता बनाये रखने के लिए वैराग्य महिमा (पृ० ५९७), सम्यक्त्व (पृ० ७३), सम्यग्दर्शन (पृ० ४५१), चित्तानुशासन (पृ० ६४६), दया (पृ० २७१), ध्यान योग (पृ० ७५७), सद्धर्म साधन (पृ० ६३६), चारित्र (पृ० ४४८), चारित्र सेना (पृ० ४५४), साधु के गूण (प०६१), धर्म के परिणाम (पृ०७१), क्षमा (प० १४६). सदागम का स्वरूप (पृ० ११८), सदागम का माहात्म्य (पृ० ११०), पुण्योदय (पृ० १३६), सम्यग्दर्शन के पांच दोष (पृ० ७३), विभिन्न साधु वर्गों पर आक्षेप के प्रसंग में क्रियाओं के अर्थ (पृ० ६१), तप के प्रकार (पृ० ७५६), मुक्ति स्वरूप (पृ० ४३०), और सिद्ध स्वरूप (पृ० ७०६) तथा सब एक साथ मोक्ष क्यों नहीं जाते (पृ० ४६) आदि प्रसंगों जैसे अनेक प्रसंग पठनीय हैं, चिन्तनीय हैं, और मननीय होने के साथ आचरणीय भी हैं ।
___सिद्धर्षि की भाषा सरल, सुबोध और हृदयग्राही तो है ही, उसमें भावों को स्पष्ट कर पाठक के मन पर अपना प्रभाव डालने की भी पर्याप्त सामर्थ्य है। इसके लिए, उन्हें, प्रसाद गुण को अंगीकार करना पड़ा। स्थिति और पात्र, जिस तरह की भाषा की अपेक्षा करते हैं, उसी तरह, भाषा का प्रयोग किया गया है। वे, जब 'कूटी प्रादेशिक रसायन' (१० ३५), विमलालोक अंजन (पृ० १२), तत्व प्रीतिकर जल (पृ० १२), महाकल्याणक भोजन (पृ० १२), आमर्ष औषधि (पृ० ४५), गोशीर्ष चन्दन (पृ० ४५), भैंस का दही और बैंगन (पृ० ८५-८६), नागदमनी औषधि (पृ० १४२) और धातु मुक्तिका (पृ० ३८) तथा लोहे को सोना बनाने का रस---'रसकूपिका' (पृ० ३८) जैसे प्रसंगों पर चर्चा करते हैं, तब उनके
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org