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________________ आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य ३८१ विस्तार का उपक्रम, मूलग्रंथ में, जिस तरह शुरू किया गया है,उसका सार इस तरह समझा जा सकता है ___ मनुजगति नगरी के महाराजा 'कर्मपरिणाम' और उनकी प्रधान महारानी 'कालपरिणति' से 'सुमति' नामक बालक का जन्म होता है । इस की देखरेख के लिए 'प्रज्ञाविशाला' नाम की धाय नियुक्त होती है । प्रज्ञाविशाला, अपनी सहेली 'अगृहीतसकेता' से परामर्श के बाद, 'सदागम' नामक उपाध्याय को, सुमति का शिक्षक बनाकर, उसे सुमति को सौंप देती है। एक दिन, सदागम महात्मा, बाजार में बैठे थे । राजकुमार सुमति और प्रज्ञाविशाला भी, उनके साथ बैठे थे। इसी बीच, अगृहीतसंकेता भी वहाँ आती है और बैठ जाती है । थोड़ी ही देर में, फूटे हुए ढोल की अस्तव्यस्त, कर्णकटु ध्वनि, और लोगों का अट्टहास सुनाई पड़ता है । कुछ ही क्षणों में,एक 'संसारी जीव' नामक चोर को गधे पर बिठाये हये, कुछ सिपाही वहां से गुजरे। चोर का शरीर राख से पोता हआ था, उसके ऊपर गेरुए रंग की, हाथ की छापे लगीं थीं। छाती पर कौड़ियों को माला लटकी हुई थी। टूटी मटकी का कपाल सिर पर रखा था। गले में, एक चोरी का माल लटका हुआ था। सिपाहियों की डाँट फटकार, और उनके निन्दा-वचन सुनकर, वह थर-थर कांप रहा था। यह दृश्य देखकर, प्रज्ञाविशाला को उस पर दया आ गई। उसने चोर के समीप जाकर उससे कहा-'भद्र ! तू इन (सदागम) महापुरुष की शरण ग्रहण कर ।' चोर भी, सदागम का स्वरूप देखकर उनमें विश्वस्त हो गया। वह, उनके पास गया, और उन्हें देखता ही रह गया । क्षणभर बाद, वह आँखें बन्द करके गिर पड़ा। जब उसे होश आया, तो चिल्लाने लगा'हे नाथ ! मेरी रक्षा करें।' सदागम ने उसे अभय का आश्वासन दिया; चोर आश्वस्त हो गया । अब, अगृहीतसङ्केता ने उस चोर से, उसके अपराध का, और राजपुरुषों द्वारा पकड़े जाने का कारण पूछा। चोर बोला-'आप पूछकर क्या करेंगी?' सदागम ने उसे निर्देश दिया- 'अगृह तसङ्केता, तेरा वृत्तान्त सुनने को उत्सुक है । अतः, इसकी जिज्ञासा शान्त करने के लिये, तू अपना सारा वृत्तान्त बदला दे ।' चोर ने कहा- 'मैं, अपनी आपबीती घटना, सब के सामने नहीं बतलाऊंगा । किसी निर्जन स्थान में चलें।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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