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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
गोचर' (जाति-स्मरण) ज्ञान हो गया। फिर आचार्यश्री का कथन सुनने के बाद, महाभद्रा का सुझाव सूना, तो वह चुपचाप उनके पीछे पीछे चल पड़ा। और आचार्यश्री के सामने पहुँचकर खड़ा हो गया। ___अनुसुन्दर को सभा में आते समय समस्त पार्षदों ने उसे चोर के रूप में देखा । किन्तु, अनुसुन्दर आचार्यश्री को देखकर अवर्णनीय सुख से भर गया । सुख की अधिकता से उसे मूर्छा आ जाती है। कुछ ही देर में सचेत होने पर वह उठ बैठता है । तब राजकुमारी सुललिता उससे चोरी के विषय में पूछती है। मगर वह चुप बना रहता है। तब, आचार्यश्री निर्देश देते है---'राजकुमारी को तुम अपना सारा पूर्व वृतान्त सुना दो।'
बस यही वह बिन्दु है, जहाँ से 'उपमिति-भव-प्रपञ्च कथा' के भवप्रपञ्च' का विस्तार से वर्णन शुरू होता है । अनुसुन्दर यानी 'चोर' अपनी चोरी का सारा पूर्व-वृत्तान्त सुनाने लगता है। __कथा सुनने के अवसर पर, आचार्यश्री के सामने महाभद्रा, सुललिता और पुण्डरीक, बैठे रहते हैं। शेष सभासद वहां से चले जाते हैं। फिर, जो कथा शुरू होती है, उसमें, अनुसुन्दर, अपने भवभ्रमण की कहानी असंव्यवहार (निगोद स्थानीय) जीवराशि में से निकलकर संव्यवहार जीवराशि में आने से शुरू करता है और विकलाक्ष, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, आदि तमाम जीव-योनियों में अनन्त बार जन्म-मरण को प्राप्त करते करते, अपने वर्तमान भव तक, सुना डालता है। इन जन्म-जन्मान्तर की कथाओं में, प्रर.ङ्ग वश, पुण्डरीक और सुललिता के भी पूर्वभवों का वृतान्त वह सुनाता है। जिसे सुनकर, लघुकर्मी जीव होने के कारण, पूण्डरीक प्रतिबुद्ध हो जाता है। पर, पूर्वजन्मों के दोषों/पापों की अधिकता के कारण, बार-बार सम्बोधन करके कथा सुनाने पर भी सुललिता को प्रतिबोध नहीं हो पाता । आखिर, विशेष प्रेरणा के द्वारा उसे बड़ी मुश्किल से बोध प्राप्त हो पाता है । फलतः सबके सब, एक साथ दीक्षा ग्रहण कर लेते हैं ।
इस सार संक्षेप में, आचार्यश्री और महाभद्रा तथा सुललिता के जो वाक्य ऊपर आये हैं, उनके आशयों से यह स्पष्ट पता चलता है कि इस महाकथा के साथ-साथ, एक रहस्यात्मक कथा भी चलती रहती है, जिसका सम्बन्ध भौतिक, दृश्यमान पात्रों से न जुड़कर, अन्तरंग रहस्यात्मक मनः स्थितियों/चित्तवृत्तियों से है। इस अन्तरंग कथा का शुभारम्भ और कथा
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