________________
३७८
जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
कथावस्तु को आगे बढ़ाता है, जबकि दूसरा आशय, अदृश्य भावात्मक जगत् के आध्यात्मिक विचार-व्यापारों में स्फूर्त होता हुआ, सामान्य कथा प्रसंगों में अनुस्यूत होकर आगे बढ़ता है। इन दोनों आशयों को समझाने के लिए यह आवश्यक था कि मूलकथा के दोनों स्वरूपों को, और उसकी प्रतीक/रूपक पद्धति व्यवस्था को, आरम्भ में ही स्पष्ट कर दिया जाये। अपने, इस दायित्व-निर्वाह में, सिद्धर्षि ने चूक नहीं की। और, कथा-ग्रन्थ की प्रस्तावना/पीठबन्ध के पूर्व में ही, कथा के दोनों स्वरूपों-अन्तरंग कथा शरीर और बाह्य कथा शरीरका संक्षिप्त किन्तु स्पष्ट वर्णन उन्होंने किया है । इनका सार-संक्षेप इस प्रकार समझा जा सकता है।
सूकच्छ-विजय का राजा था-अनुसुन्दर । यह चक्रवर्ती सम्राट था और इसकी राजधानी थी-मेरुपर्वत के पूर्व महाविदेह क्षेत्र की प्रमुख नगरी क्षमपुरी । वृद्धावस्था के अन्तिम दिनों में, अपना देश देखने की इच्छा से, वह भ्रमण के लिये निकल पड़ता है। घूमते-घूमते, वह शंखपुर नगर पहुंचता है । शंखपुर के बाहर एक सुन्दर बंगीचा था- 'चित्तरम' । इसके बीच में 'मनोनन्दन' चैत्य-भवन बना हुआ था। कुछ दिन पहिले, विहार करते-करते आचार्य समन्तभद्र भी शंखपुर आ पहुँचे थे और चित्तरम बाग के चैत्य भवन में ठहरे हुए थे।
एक दिन, आचार्यश्री की सभा लगी हुई थी। उनके सामने प्रवत्तिनी साध्वी महाभद्रा बैठी हुई थीं। इनके पास में ही श्रीगर्भ नरेश की राजकुमारी सुललिता भी बैठी थी, इसी के पास पुण्डरीक राजकुमार बैठा हुआ था। आसपास अन्य सामाजिक नागरिक बैठे हुए थे। इसी समय, अनुसुन्दर चक्रवर्ती का काफिला, उद्यान के बगल से निकलता है । रथों की गड़गड़ाहट और सेना के कोलाहल ने, सभा में बैठे लोगों का ध्यान, अपनी ओर आकृष्ट कर लिया ।
_ 'भगवति ! यह कैसा कोलाहल है ?' जिज्ञासावश, राजकुमारी ने महाभद्रा से पूछा।
'मुझे नहीं मालूम ।' महाभद्रा ने, आचार्यश्री की ओर देखते हुए उत्तर दिया।
'राजकुमार पुण्डरीक और राजकुमारी सुललिता को प्रबोध देने का यह अनुकूल अवसर है' --यह विचार करके, आचार्यश्री ने महाभद्रा से कहा---'अरे महाभद्रा ! तुम्हें पता नहीं है कि हम सब, इस समय 'मनुज
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org