________________
आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य
३७७
के अन्त में, मोक्ष के द्वार तक पहुँचता है। इन भौतिक परिस्थितियों में, उसके वैभव सम्पन्न सूखदायी, वे जीवन-वत्तान्त कथा में आये हैं, जिनके अध्ययन से पाठकों को विलासिता भरे भौतिक-सुखों के आनन्द/रस-पान का अवसर मिलेगा । और, कुछ ऐसी विषम, दीन परिस्थितियों का चित्रण भी मिलेगा, जिनमें, पाठक की सहृदयता/दयालुता द्रवित हो उठेगी। जबकि आध्यात्मिकता के अमूर्त-आकाश में उड़ान भरती कल्पनाओं का आध्यात्मिक कथा-कलेवर, भव्य-जीव की शुभ रागमयी पुण्य-प्रसूत-केलियों के ऐसे दृश्य उपस्थित करता है, जिनमें भूला-भटका भव्य जीवात्मा. सोने की हथकड़ी जैसे पुण्य-बन्ध के अलावा कुछ और हासिल नहीं कर पाता। किन्तु, कभी-कभी, अशुभ-रागमय पापोद्भूत ऐसे विषभ क्षणों/प्रसंगों का भी सामना करना पड़ जाता है, जिनमें, उसका भव्यत्व तक सिहर-सिहर उठता है, लड़खड़ाने लग जाता है।
किन्तु, ग्रन्थकार का मूल आशय, इन दोनों ही प्रकार की स्थितियों का विश्लेषण नहीं है। उसका स्पष्ट आशय यह है कि जीवात्मा, जित कारणों से समृद्ध सम्पन्न बन कर विलासिता में डूबता है, और, जिन कारणों से उसे दर-दर की ठोकरें खानी पड़ती हैं, उन सारे कारणों का भावात्मक स्वरूप-विश्लेषण किया जाये । और, पाठकों को यह बतलाया जाये कि सुख और दुःख की सर्जना, उसके अन्तस् की शुभ-अशुभ रागमयी भावनाओं के आधार पर होती है। यदि, उसकी चित्तवृत्ति, उत्कृष्ट शुभ रागादिमयी है, तो उसे, उच्चतम स्वर्ग में स्थान मिल सकता है । और, यदि, उत्कृष्ट अशुभ-राग-आदिमयी चित्तवृत्ति होगी, तो, अपकृष्टतम नरक में उसे जाना पड़ सकता है। अतः इन दोनों ही प्रकार की, राग-द्वष आदि से युक्त शुभ-अशुभ चित्तवृत्तियों/मनोभावनाओं से मुक्त होकर, एक ऐसी मध्यस्थ/तटस्थ चित्तवृत्ति, उसे बनानी चाहिए, जिसके बल से, स्वर्ग/नरक आदि भवों में भ्रमण करने से, 'भव-प्रपंच' से वह बच सके । यानी, एक ऐसा विशुद्ध शुद्ध भाव वह जागृत कर सके, जिसके जागरण से, किसी भी भव में, आना-जाना नहीं पड़ता।
इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर, पूरी की पूरी 'उपमिति-भव-प्रपंच कथा' की कथा-योजना, दुहरे आशयों को साथ-साथ समाविष्ट करके लिखी गई है। इसका एक आशय तो, सामान्य जगत् के व्यवहारों में दिखलाई पड़ने वाले स्थान, पात्र, घटनाक्रम आदि में व्यक्त होता हुआ, सामान्य
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org