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३७२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
रूपक कृति है । ये, मूलसंधी ज्ञानभूषण भट्टारक के प्रशिष्य और प्रभाचन्द्र भट्टारक के शिष्य थे । इस नाटक की रचना, माघ सुदी वि० सं० १६४८ के दिन, मधूकनगर में हुई थी । 1 ज्ञानसूर्योदय में, बौद्धों का और श्वेताम्बरों का उपहास किया गया है। नाटक की प्रस्तावना में कमलसागर और कीर्तिसागर नाम के दो ब्रह्मचारियों का निर्देश है, जिनकी आज्ञा से सूत्रधार, प्रस्तुत नाटक का अभिनय करना चाहता है ।
वेद कवि की दो रूपक रचनायें हैं । इनमें एक 'विद्या परिणय' में, विद्या तथा जीवात्मा के विवाह का सात अंकों में वर्णन है । इसमें, अद्वैतवेदान्त के साथ शृंगार रस का मंजुल समन्वय प्रदर्शित किया गया है । शिवभक्ति से मोक्ष प्राप्त होता है, यह बतलाना ही नाटक का प्रमुख उद्द ेश्य है । इसमें जैनमत, सोम-सिद्धान्त, चार्वाक और सौगत आदि पात्रों की अवतारणा 'प्रबोध चन्द्रोदय' की शैली पर की गई है ।
दूसरी कृति 'जीवानन्दन" में भी सात अंक हैं। और इनमें, गलगण्ड, पाण्डु, उन्माद, कुष्ठ, गुल्म, कर्णमूल आदि रोगों का पात्र रूप में चित्रण है । शारीरिक व्याधियों में राजयक्ष्मा सबसे बढ़कर है । इससे छुटकारा, सिर्फ पारद रस के प्रयोग से मिलता है । स्वस्थ शरीर से स्वस्थ चित्त और स्वस्थ चित्त से आत्मकल्याण में संलग्न रह पाना सम्भव होता है । इसमें अध्यात्म और आयुर्वेद दोनों के मान्य तत्त्वों का प्रतिपादन किया गया है।
वेद कवि तंजीर के राजा शाहजी ( १६८४ - १७१० ई०) तथा शरभो जी ( १७११ - १७२० ई०) के प्रधानमन्त्री थे । इनका असली नाम आनन्दराय मखी था ! ये शैव थे और सरस्वती के उपासक थे। इनकी प्रसिद्धि 'वेद
१ तत्पट्टामलभूषणं चञ्चकरः सभातिचतुरः तत्पट्टेऽजनि वादिवृन्दतिलकः श्रीवादिचन्द्रो यति-स्तेनायं व्यरचि प्रबोधतरणिः भव्याब्जसंबोधनः ॥ वसु-वेद-रसाब्जाङ्क वर्षे माघे सिताष्टमी दिवसे । श्रीमन्मधूक नगरे बोधसंरम्भः ॥
सिद्धोयं
समभवद् गम्ब मते, श्रीमत्प्रभाचन्द्रमाः ।
- ज्ञानसूर्योदय. प्रस्तावना
२ अडयार से १९५० ई में 'काव्यमाला' में प्रकाशित । तथा हिन्दी अनुवाद के साथ १९५५ में काशी से प्रकाशित ।
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