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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
में फंस कर रह जाता है। इसी व्यक्ति की तरह, तीन और व्यक्ति, दक्षिण, पश्चिम व उत्तर दिशाओं की ओर से क्रमशः आते हैं और पूण्डरीक की मनोहर शोभा देख कर, उसे तोड़ने और अपने साथ ले जाने की इच्छा करते हैं। इसी प्रयास में, ये तीनों भी पूर्व-दिशा से आये पहिले व्यक्ति की ही भांति, उस तालाब में भरे कीचड़ में फंस कर रह जाते हैं।
कुछ ही देर बाद, वहाँ एक भिक्ष भी आ पहुँचता है । भिक्षु सरोवर के तीर पर पहुँच कर, उसकी शोभा से आकृष्ट होकर, चारों ओर देखता है। उसे, तालाब के चारों ओर, कीचड़ में, उन चारों व्यक्तियों को फँसा देखकर, यह समझते देर नहीं लगती कि वे क्यों और कैसे, इस दुर्गति में पहुँचे हैं। अतः वह अपने स्थान से कुछ और आगे आता है, और सरोवर के किनारे पर पहुँचकर, वहीं खड़े रहते हुए ही कहता है-'ओ पुण्डरीक ! मेरे पास आ जाओ।'
पुण्डरीक, भिक्ष की आवाज सुनते ही, अपने मृणाल से अलग होकर, उड़ता हुआ भिक्ष के हाथ में आता है । यह देखकर, कीचड़ में फंसे चारों व्यक्ति, आश्चर्यचकित रह जाते हैं ।
इस कथानक में जो प्रतीक अपनाये गये हैं, उन सब का प्रतीकार्थ स्पष्ट करके, कथा में अन्तनिहित रहस्य/अभिप्राय को श्रमण भगवान् महावीर स्वयं स्पष्ट करते हुए कहते हैं- 'कथानक में वर्णित सरोवर, यह संसार है । उसमें भरा हुआ जल, कर्म है और कीचड़, सांसारिक विषयवासनाएँ हैं । सरोवर में खिले श्वेतकमल, सांसारिकजन हैं। उनके मध्य में विकसित विशाल पुण्डरीक राजा है। चारों दिशाओं से आने वाले व्यक्ति, अलग-अलग मतों के अनुयायी व्यक्ति हैं और भिक्ष 'सद्धर्म' है। सरोवर का किनारा 'संघ' है। भिक्ष द्वारा पुण्डरीक को बुलाना सद्धर्म का 'उपदेश' है। और पुण्डरीक का उसके पास आ जाना 'निर्वाणलाभ' है।
उत्तराध्ययन में 'नमि पवज्जा' का प्रतीकात्मक दृष्टान्त आया है। राजर्षि नमि जब विरक्त होकर अभिनिष्क्रमण में संलग्न होते हैं, तभी ब्राह्मण का वेष बनाकर, देवराज इन्द्र, उनके पास पहुँचता है और प्रश्न करता है-'भगवन् ! मिथिलानगरी में, आज यह कैसा कोलाहल सुनाई
१ सूत्रकृताङ्ग-द्वितीय खण्ड-१ अध्ययन,
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