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________________ ३६२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा है । इसकी मुख्य कथा के साथ-साथ अनेकों अवान्तर कथाएँ भी आती गई हैं । इस रचना के जो तीन रूपान्तर प्राप्त होते हैं, उनमें से 'गद्य-चिन्तामणि' के कर्त्ता मूल ग्रन्थ के रचयिता ही हैं । दूसरा रूपान्तर 'जीवन्धरचम्पू' महाकवि हरिचन्द की रचना है । तीसरा रूप गुणभद्राचार्य के 'उत्तर पुराग' में मिलता है । जैन जगत के 'बृहत्कथाकोश' 'परिशिष्ट पर्व' व 'आराधना कथाकोश' तथा बौद्ध साहित्य के 'अवदान शतक' एवं 'जातकमाला' को ऐसे कथाग्रंथों के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, जिनमें लोककथाओं की विनोदपूर्ण शैली के माध्यम से, उच्चतम जीवन-साधना और आदर्शों की ओर स्पष्ट सङ्केत किये गये हैं । इन तमाम भारतीय लोक कथाओं के विपुल साहित्य ने यात्रियों, व्यापारियों और धर्मप्रचारक साधु-संन्यासियों के माध्यम से, सुदूर देशों में पहुँच कर, वहाँ-वहाँ के कथा-साहित्य को न सिर्फ प्रभावित किया, वरन्, उसमें भारतीय आख्यान साहित्य की एक ऐसी अमिट निशानी भर दी, जो लोकमङ्गलकारी, जीवन्त आदर्शों का मनोरंजक उपदेश, मानवता को अनन्तकाल तक प्रदान करती रहेगी । रूपक साहित्य : परम्परा एवं विकास मानवीय हृदय के भावोद्गार, जब तक अपने अमूर्त स्वरूप में रहते हैं, तब तक उनका साक्षात्कार इन्द्रियों द्वारा हो पाना सम्भव नहीं होता । ये ही भावोद्गार, जब किसी रूपक / उपमा में ढल कर, मूर्त रूप प्राप्त करते हैं, तब वे सिर्फ इन्द्रिय ग्राह्य ही नहीं बन जाते, वरन् उनमें एक ऐसा अद्भुत शक्ति-संसार हो जाता है, जिससे वे अपने साक्षात्कर्ता के मन / मस्तिष्क- पटल पर गम्भीर और अमिट छाप बना डालते हैं । , काव्य-जगत् में अरूप / अमूर्त भावों के मूर्तीकरण का, उनके रूपविधान के मूर्तीकरण का, उनके रूप-विधान के प्रचलन का, ऐसा ही मुख्य कारण होना चाहिए । रूपक - साहित्य की सर्जना-शैली के मूल में भी, अमूत्त को मूर्त रूप प्रदान करने का उपक्रम, आधारभूत तत्त्व बनता है । उपमा, रूपक, अतिशयोक्ति और लक्षणा के दोनों प्रकार - सारोपा और साध्यवसाना, ऐसे प्रमुख उपकरण हैं, जो, रूपक - साहित्य की सर्जना शक्ति में प्रमुख पाथेयता का निर्वाह करने में सक्षम हैं। इनमें से, सादृश्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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