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________________ ३५४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा संस्कृत साहित्य की नोति-कथाओं के प्रमुख पात्र, मानवेतर प्राणीपशु-पक्षो रहे हैं। ये अपनी-अपनी कहानियों में, मनुष्य की ही भाँति सम्पूर्ण व्यवहार करते हुये पाये जाते हैं। हर्ष-विषाद, प्रेम-कलह, हास्यरुदन, युद्ध-सन्धि, उपकार-अपकार एवं चिन्ता-उत्कण्ठा जैसे भावात्मक व्यवहारों में उनका आचरण, मानव जैसा ही होता है। यही पशू-पक्षी, अपनी-अपनी कहानियों में, व्यावहारिक राजनीति एवं सदाचार के सूक्ष्मतम रहस्यों और उनकी उपलब्धियों का, तथा इन सबकी साधनभूत गूढ़ मंत्रणाओं तक को, बड़े स्वाभाविक ढंग से प्रतिपादित करते देखे जाते हैं । किन्तु, उपलब्ध नीतिकथा साहित्य में, एक भी ऐसी कथा नहीं मिलती, जिस में, अचेतन/निर्जीव पात्रों को स्वीकार किया गया हो । हाँ, ऋग्वेद में, उषा से सम्बन्धित एक कविता है 11 किन्तु, उसमें दृश्य का प्राकृतिक सौन्दर्य ही अभिव्यक्त हुआ है। वहाँ पर, प्रकृति, जीवन्त स्वरूप में उपस्थित अवश्य हुई है, पर वह, किसी कथा/आख्यान के पात्र जैसा काय/ व्यवहार नहीं करती। इसलिए इस उषा-वर्णन में, प्रकृति के मानवीयकरण का विश्लेषण, हम स्वीकार करेंगे । क्योंकि पात्र बनकर, किसी कहानी में कार्य/व्यवहार करना, एक अलग बात है । इस पात्र-कार्य/व्यवहार की समानता, प्रकृति के मानवीयकरण से एकदम विपरीत बैठती है । इसलिए, डाँ० जान्सन की परिभाषा में 'कभी-कभी अचेतन पदार्थ' की पात्रता का सिद्धान्त-कथन चिन्तनीय प्रसंग उपस्थित कर देता है। - सन् १८४२ में, लन्दन में फेबल्स (Fables) नाम से एक कहानी संग्रह प्रकाशित हुआ था। इसमें अलग-अलग लेखकों की जो लघुकथाएँ, सम्पादक द्वारा संकलित की गई थीं, वे सबकी सब, 'फेबल्स' के अन्तर्गत ही रखी गई थीं। इनमें प्रख्यात ग्रीक नीतिकथाकार ईसप (Aesop) से लेकर डोडस्ले (Dods1 y) तक की नीति कथाएँ थीं। इन कथाओं के पात्रों में कहीं 'ईसप एवं गर्दभ' है, तो कहीं पर 'दो बर्तन' है । शृगाल, सिंह, आदि पंचतन्त्र की कहानियों जैसे पात्र भी कुछ कथाओं में थे। इन सब कहानियों को 'फेबल्स' कहना, उस समय ठीक माना जा सकता था, क्योंकि, इस संग्रह के प्रकाशन काल तक तक, नीतिकथा की कोई भेददशिका व्याख्या/परिभाषा, या ऐसा ही कोई लक्षण-विशेष, स्पष्ट नहीं हो १. ऋग्वेद १/४८/१-१६ २. Fables : Editor G. Moir Bussey. London. 1842 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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