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आगमोत्तरकालीन कथा साहित्य
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'शश', 'पलाष' के स्थान पर 'पलाश' और 'मंजक' के स्थान पर 'मञ्चक' का प्रयोग शुद्ध शब्द-प्रयोग है।
पश्चिमी विद्वानों की दृष्टि में मिश्र देश का साहित्य सबसे प्राचीन माना जाता है। किन्तु उसकी प्राचीनता विक्रम से मात्र ४००० वर्ष पूर्व तक जा सकी है। जबकि विज्ञों ने संस्कृत की प्रथम रचना ऋग्वेद को हजारों वर्ष प्राचीन माना है। ऋग्वेद के रचनाकाल के विषय में विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है। किन्तु, गणित के कुछ अकाट्य तर्कों के बल पर लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने इसका जो रचना-काल बतलाया है, वह विक्रम से कम से कम छः हजार वर्ष पूर्व का ठहरता है। विश्व में किसी भी भाषा का ऐसा साहित्य नहीं है, जो आज से आठ हजार वर्ष पूर्व का हो। इस प्राचीनता के बावजूद संस्कृत साहित्य की रसवती धारा आज तक अविच्छिन्न रूप से सतत प्रवाहशील बनी हुई है। विश्व के अन्य साहित्यों के साथ अविच्छिन्नता की कसौटो पर संस्कृत साहित्य को जांचापरखा जायेगा तो यह साहित्य सबसे महत्वपूर्ण सिद्ध होगा।
वेदों की मंत्र-संहिताओं को रचना के बाद इनकी व्याख्या का समय आता है । इस समय के ग्रन्थों को ‘ब्राह्मण' नाम से कहा गया है। ब्राह्मणों के बाद 'आरण्यक' और फिर 'उपनिषद्' ग्रन्थ रचे गये। इनके बाद का काल स्पष्ट रूप से वैदिक और लौकिक साहित्य के साहित्य का 'सन्धिकाल' माना जा सकता है । जिसमें स्मृतियों, पुराणों और रामायण व महाभारत जैसे आर्षकाव्यों की रचनाओं को लिया जा सकता है। आशय यह है कि महर्षि वाल्मीकि की रामायण से पूर्व के साहित्य को हम 'वैदिक-साहित्य' और रामायण से लेकर आज तक के संस्कृत साहित्य को ‘लौकिक-साहित्य' के नाम से अभिहित कर सकते हैं। विषय, भाषा, भाव आदि अनेकों दृष्टियों से लौकिक साहित्य का विशिष्ट महत्व है।
वैदिक साहित्य की यह विशेषता है कि उसमें विभिन्न देवताओं को लक्ष्य करके यज्ञ-याग आदि के विधान और उनकी कमनीय स्तुतियां संजोयी गई हैं। इसलिये इस साहित्य को मुख्यतः धर्म-प्रधान साहित्य कहा जाता है । जबकि लौकिक संस्कृत साहित्य मुख्यतः लोकवृत्त प्रधान है। इसकी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की ओर विशेष प्रवृत्ति हुई है। जिससे धर्म की व्याख्या/वर्णना में वैदिक साहित्य का विशेष प्रभाव स्पष्ट होने पर भी कई मायनों में नूतनता उजागर हुई है। ऋग्वेद काल में जिन देवीदेवताओं की प्रतिष्ठा थी, प्रमुखता थी, वे लौकिक साहित्य को परिधि में
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