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________________ श्रमण कथाएँ १४६ प्रकार का ऊहापोह नहीं किया है । ये तीनों गाथाएँ प्रकरण की दृष्टि से भी अनुपयुक्त नहीं है । इन तीनों गाथाओं में उनके जन्म-स्थल, जन्म का कारण और आपस में मिलने का वर्णन है । ये गाथाएँ अगली गाथाओं से सम्बन्धित हैं । ये तीनों गाथाएँ आर्याछन्द में निबद्ध हैं जबकि आगे की गाथाएँ अनुष्टुप, उपजाति आदि विभिन्न छन्दों में निर्मित हैं। छन्दों की भिन्नता से उन्हें प्रक्षिप्त या अर्वाचीन नहीं मान सकते । यह कथा भगवान् अरिष्टनेमि के युग की है। निषधकुमार वृष्णिदशा अध्ययन प्रथम में निषधकुमार की कथा का प्रसंग भी भगवान् अरिष्टनेमि से सम्बन्धित है। भगवान् अरिष्टनेमि एक बार द्वारिका नगरी में पधारे । उनके आगमन के संवाद को सुनकर द्वारिका नगरी के निवासी तथा श्रीकृष्ण आनन्द से झूम उठे। राजकीय वैभव के साथ प्रभ के दर्शन को चले। निषधकूमार भी भगवान को वन्दन करने के लिए पहुँचा । भगवान् की विमल-बाणो सुनकर उसने श्रावक के बारह व्रत ग्रहण किए । निषधकुमार के दिव्य रूप को देखकर अरिष्टनेमि के प्रधान शिष्य वरदत्त अणगार ने पूछा-प्रभो ! यह ऋद्धि-समृद्धि और सुरूप इन्हें कैसे प्राप्त हुआ? भगवान् ने कहा-भरतक्षेत्र में रोहितक नामक नगर था। महाबल राजा और पद्मावती रानी थो। विरंगत कमार का बत्तोस कन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ। आचार्य सिद्धार्थ के उपदेश को श्रवण कर वह श्रमण बना और उत्कृष्ट तप की साधना कर पांचवें ब्रह्मदेव लोक में देव बना । यह विराट सम्पत्ति और ऋद्धि पूर्वकृत पुण्य का फल है । वरदत्त गणधर ने पूछा-भन्ते ! क्या यह आपके सन्निकट प्रबजित होगा ? भगवान ने स्वीकृतिसूचक संकेत किया। कुछ समय के पश्चात् भगवान का द्वारिका नगरी में पुनः पदार्पण हुआ। निषधकुमार ने संयम ग्रहण किया। सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। नौ वर्ष तक श्रामण्य-पर्याय में उत्कृष्ट तप की आराधना की और बयालीस भक्त का अनशन कर, संलेखना-संथारे के द्वारा समाधिपूर्वक काल कर सर्वार्थसिद्ध विमान में देव रूप में उत्पन्न हआ। भगवान अरिष्टनेमि के तीर्थ में ही गौतम अणगार ने भी अपने जीवन को पावन बनाया था। भगवान् अरिष्टनेमि के पावन उपदेश से प्रभावित होकर वह आठ पत्नियों का त्याग कर भगवान अरिष्टनेमि के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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