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________________ ७८ | अप्पा सो परमप्पा अपने आपको जानने का रहस्यार्थ स्थूलदृष्टि व्यक्ति कह सकता है कि स्वयं को तो सभी मनुष्य, यहाँ तक कि द्वीन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक के सभी जीव, जानते हैं कि "मैं कौन हैं ?" परन्तु यह जानना, सच्चे माने में स्वयं को जानना नहीं है। द्वीन्द्रिय से लेकर तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय तक के जीव तो बेचारे अज्ञान और मोह से ग्रस्त हैं, उनके पास स्वयं को व्यक्त करने की, दूसरों को समझाने की तथा स्पष्ट बोध कराने की भाषा नहीं है। परन्तु मनुष्य के पास तो सम्यक् विवेक व निर्णय करने वाली बुद्धि है, मनन करने की क्षमता वाला मन है, अपनी बात को स्पष्टतः व्यक्त करने के लिए वाणी है, सर्वज्ञोक्त सिद्धान्तों पर श्रद्धा करने के लिए हृदय है, फिर भी सभी मनुष्य यथार्थ रूप में अपने आपको कहाँ जानते-पहचानते हैं, अथवा सम्यक विवेक करके निश्चयपूर्वक कहाँ कह सकते हैं, या स्वयं का मौलिक परिचय सिद्धान्त रूप में कहाँ दे पाते हैं। अपने आप से अनजान व्यक्ति अधिकांश मनुष्य अपने आप से अपरिचित हैं, अनजान हैं। उनसे पूछा जायेगा कि आप कौन हैं ? आपका क्या परिचय है ? तो वह या तो अपना नाम बतायेगा कि मैं रामलाल हूँ, श्यामबिहारी हूँ या अमुक नाम वाला हूँ। अथवा अपने पिता-माता आदि के नाम से अपना परिचय देगा कि मैं अमुक का पुत्र हूँ, पौत्र हूँ, पिता हूँ, दौहित्र हूँ, भानजा या भतीजा आदि हूँ। अथवा वह अपने वंश, गोत्र या जाति (ज्ञाति) के माध्यम से अपना परिचय देगा कि मैं चन्द्रवंशी हूँ, सूर्यवंशी हूँ, या रघुवंशी हैं, या मैं ओसवाल, पोरवाल, अग्रवाल, खण्डेलवाल, जायसवाल आदि हूँ, अथवा कहेगा कि मैं गर्ग, गोयल, सरयूपारी, शाकद्वीपीय, बोथरा, सेठिया आदि गोत्रवाला हैं। अथवा वह जातिकारक परिचय देगा कि मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (बनिया), हरिजन, चमार, कायस्थ आदि हूँ। अथवा वह अपने धर्म-सम्प्रदाय के माध्यम से अपना परिचय देगा कि मैं जैन हूँ, बौद्ध हैं, वैष्णव, वैदिक, आर्यसमाजी, शैव, सिक्ख, ईसाई, मुसलमान, हिन्दू, आदि हूँ अथवा मैं स्थानकवासी, तेरापन्थी, दिगम्बर, मन्दिरमार्गी, श्वेताम्बर, हीनयानी, महायानी, शिया, सून्नी, रोमन कैथोलिक या प्रोटेस्टेन्ट आदि हैं। अथवा वह अपने देश, प्रान्त या भाषा आदि के माध्यम से अपना परिचय देगा कि मैं भारतीय हैं, मैं पाकिस्तानी हैं, बर्मी हूँ, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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