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७६ | अप्पा सो परमप्पा
में बैठकर करे । तदनन्तर एकान्त में जाकर एकाग्रचित्त होकर आत्मा के शुद्ध स्वभाव का चिन्तन, मनन एवं मन्थन करे । इस प्रकार बार-बार शुद्ध आत्मा का ही रटन, पुनरावर्तन एवं अभ्यास करे । अपने अन्तर् में आत्मा के सिवाय अन्य पदार्थों के विषय की रुचि एवं तमन्ना उत्पन्न न होने दे । आत्मा के शुद्ध स्वरूप का ध्यान करे । आत्मा का स्वरूप शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के राग से रहित है । यों रागरहित ज्ञानानन्दमयी आत्मा के प्रति श्रद्धा ज्ञान करके उसके ध्यान में एकाग्र हो जाओ। यही अभेद भक्ति है, यही मोक्षसुख - परमात्म-सुख का या मुक्ति का कारण है । तत्पश्चात् सहजानन्दी शुद्ध स्वरूपी अविनाशी मैं आत्मस्वरूप
इस प्रकार की धुन बार-बार बोलें । निष्कर्ष यह है कि जैसे वैज्ञानिक अपनी लेबोरेटरी ( प्रयोगशाला ) में बैठकर एकमात्र अपने अभीष्ट प्रयोग के सम्बन्ध में ही सर्वस्व चिन्तन, मनन, विश्लेषण, निरीक्षण-परीक्षण करता है, वैसे ही आत्मार्थी साधक एकाग्रचित्त होकर आत्मा में डूब जाए । उसी में स्थित होकर आत्मा से ही सम्बन्धित सर्वस्व चिन्तन मनन, विश्लेषण, निरीक्षण-परीक्षण करे । छान्दोग्य उपनिषद् में इस सम्बन्ध में स्पष्ट चिन्तन प्रस्तुत किया गया है
" आत्मजिज्ञासा के पश्चात् साधक आत्मा के आदेश में रहकर नीचे, ऊपर, पीछे, आगे, दक्षिण, उत्तर आदि दिशाओं में सर्वत्र आत्मा ही है, इस प्रकार देखता / मनन करता है । ऐसे ही जानता मानता है, वह आत्मरति, आत्मा में क्रीड़ा करने वाला तथा आत्मा में ही विचरण करने वाला और आत्मा में आनन्द पाने वाला स्वराट् (आत्मराजा ) हो जाता है ।"
इस प्रकार की प्रक्रिया साधक को शुद्ध आत्मा का अनुभव और अन्त में साक्षात्कार तथा आत्मसमाधि प्राप्त करा सकेगी, जो उसे परमात्मा के समकक्ष बना देगी | 2
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अथात आत्मादेश
एवात्मैवाधस्तादात्मोपरिष्टादात्मा पुरस्ताद् आत्मा
दक्षिणतः आत्मोत्तरतः, आत्मैवेदं सर्वमिति । स वा एष एवं पश्यन्नेवं मन्वान एवं विजानन् आत्मरतिरात्मक्रीड, आत्म- मिथुन आत्मानन्दः स स्वराड् भवति । " - छान्दोग्योपनिषद्
२ आत्मानमात्मन्यवलोक्यमानस्त्वं दर्शन - ज्ञानमयो विशुद्धः । एकाग्रचित्तः खलु यत्र-तत्र स्थितोऽपि साधुर्लभते समाधिम् ।।
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- सामायिकपाठ श्लोक २५
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