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आत्मा को कहाँ और कैसे खोजें | ७५ पृथक् ही रहने का है । बुद्धिमान् मानव समुद्र की सतह पर आई मलिन तरंगों को देख कर सारे समुद्र को मलिन नहीं मान लेता। वह जानता है कि सारा समुद्र स्वच्छ है, ये मलिन तरंगें उसकी स्वरूपभूत नहीं हैं । बल्कि समुद्र तो उस मलिनता को उछाल कर बाहर फेंक देता है।
यह भी निश्चित है कि रागद्वेषादि या विषय-कषायादि का मैल आत्मा पर चढ़ाकर या कर्मोदय प्राप्त औपाधिक पदार्थों की दृष्टि से आत्मा या कोई भी वस्तु देखी जायेगो तो उसका वास्तविक स्वरूप प्रतीत नहीं होगा। चर्मचक्षओं से तो सबको वस्तु एक-सी प्रतीत होती है, किन्तु वस्तु को देखने के बाद उसके साथ कषायों या रागद्वेषादि विकारों का रंग मिला होगा, तो वह विभिन्न व्यक्तियों को भिन्न-भिन्न रूप में नजर आयेगी। एक ही स्त्री है, उसे कामो पुरुष, बालक और निर्विकारी साधु तीनों तीन दृष्टियों से देखेंगे। सभी चीजें पीली न होने पर भी पीलिया के रोगी को वे पीली ही नजर आयेंगी। इसलिए विकारों का चश्मा उतार कर शुद्ध निर्विकार निष्पक्ष दृष्टि से सम्यग्दर्शनादि सम्पन्न होकर शुद्ध आत्मा को आत्मा में देखना चाहिए।
_आत्मा में डूबकर भी यदि कोई व्यक्ति वहाँ शुद्ध आत्मा का चिन्तन समीक्षण, निरीक्षण करना छोड़कर उसकी वर्तमान पर्यायों या बाह्यपदार्थों का चिन्तन-मनन निरीक्षण करने लगे तो वह आत्मा को यथार्थरूप में नहीं देख-जान सकेगा।
आत्मा को शुद्ध रूप में खोजने-देखने की प्रक्रिया आत्मा को शुद्ध रूप में खोजने और देखने की सर्वसुलभ विधि यह है कि सर्वप्रथम आत्मा के शुद्ध स्वभाव या शूद्ध आत्मा को जानने-समझने की जिज्ञासा उत्पन्न होनी चाहिए कि अनन्तकाल तक मैंने विभिन्न गतियों और योनियों में भ्रमण करते हुए आत्म-स्वभाव नहीं जाना-समझा। आत्मा कैसी है ? मेरा या मेरे शरीर का उसके साथ क्या सम्बन्ध है ? मनुष्य जन्म पाकर भी मैंने कुटुम्ब, शरीर, धन, यश वैषयिक सूख आदि का ही प्रायः चिन्तन किया। परन्तु ये सब क्या मेरी आत्मा के साथ रहेंगे तथा जायेंगे ? वस्तुतः इन सब नाशवान् जड़ पदार्थों से मेरी आत्मा पृथक् है, एकाकी है, सदा शाश्वत मैं शुद्ध चिदानन्दस्वरूप हैं। सिद्ध परमात्मा जितना पूर्ण सामर्थ्य मेरे में भरा है, उसे मैं जान-पहचान और प्रकट करू।
इस प्रकार की जिज्ञासा के पश्चात् तीन लोभ, मोह, ममता आदि कम करके इसी शुद्ध आत्म-स्वरूप का श्रवण निर्ग्रन्थ धर्मगुरुओं के सान्निध्य
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