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७४ ] अप्पा सो परमप्पा शुद्ध आत्मा को ही जानो देखो
__ शुद्ध आत्मा शुभ और अशुभ दोनों प्रकार के कर्मों से रहित है। जैसा कि परमानन्द पंचविंशति में कहा गया है -
द्रव्यकर्म-विनिमुक्त भावकर्म-विजितम् ।
नोकर्म-रहितं विद्धि निश्चयेन चिदात्मनः ।।1 निश्चयनय की दृष्टि से ज्ञानमय शुद्ध आत्मा को द्रव्यकर्मों से सर्वथा मुक्त, भावकर्मों से रहित और नोकर्म-विहीन जानो।
शुद्ध आत्मावलोकन का तात्पर्य है-आत्मा को देह, गेह, मन, वाणी, बुद्धि, या अन्य कषायादि विकारों से पृथक् समझे और आत्मा के शुद्धरूप पर मनन, चिन्तन करे, दृढनिश्चय करे। परमानन्द पंचविंशति में शुद्ध आत्मा की कुछ झांकी मिलती है
अनन्तसुख-सम्पन्न, निजदेहे व्यवस्थितम् । अनन्तवीर्य सम्पन्नं दर्शनं परमात्मनः ॥ निविकारं निराधारं सर्वसग-विजितम् ।
परमानन्द-सम्पन्नं शुद्ध चैतन्य लक्षणम् ।।३ अर्थात्-अपने शरीर में स्थित अनन्त सुख और वीर्य (शक्ति) से सम्पन्न परमात्मस्वरूप आत्मा का दर्शन करो । यही शुद्ध चैतन्यमय आत्मा का लक्षण है, जो कि निविकार (रागद्वषादि विकारों से रहित) समस्त आसक्तियों से दूर है, तथा शरीरादि किसी के आधार पर भी नहीं है। स्वतंत्र आत्म द्रव्य है।
जैन दृष्टि से कहें तो आत्मा की वर्तमान जो पर्यायें हैं वे सब आत्मस्वभाव से भिन्न हैं। द्रव्यदृष्टि से आत्मा एकरूप है तथा अपने स्वभाव से परिपूर्ण है। अतः पर्यायदृष्टि छोड़कर द्रव्यदृष्टि से शुद्ध आत्मा का अनुभव न हो जाए, तब तक बार-बार श्रवण, मनन, निदिध्यासन करना चाहिए। पर्याय दृष्टि से विचारने पर विकार एवं मलिनताएँ ही प्रतीत होती हैं । परन्तु वे विकार या मालिन्य आत्मा के नहीं हैं । वे मलिनताएं या विकृतियां आत्मा के स्वभाव में मिल नहीं जाती। उनसे आत्मा का शुद्ध स्वभाव कभी विकारी नहीं हो जाता। आत्मा का स्वभाव तो विकार से
१ परमानन्द-पंचविंशति श्लोक ८ । २ वही, श्लोक २। ३ वही, श्लोक ६
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