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________________ आत्मा को कहाँ और कैसे खोजें | ७३ निष्कर्ष यह है कि आत्म-तत्व शुद्धरूप में तो प्रत्येक मानव के अन्तर में पड़ा है, परन्तु उसे जाना-देखा जा सकता है-अन्तर्मुखी स्वानुभव द्वारा ही, या ज्ञानोपयोग अथवा अन्तान द्वारा ही। वाणी से आत्मा का स्वभाव या स्वरूप का कथन पूर्णतया नहीं किया जा सकता। चैतन्य मूति आत्मा की महिमा इतनी विस्तृत है कि वाणी उसे पकड़ नहीं सकती, ज्ञानोपयोग या ज्ञान के अनुभव से ही सर्वज्ञ उसे पूर्णतया जानते हैं । श्रीमद्राजचन्द्र ने भी कहा हैजे पद श्रीसर्वज्ञ दीठ ज्ञानमां, कही शक्या नहि ते पणश्री भगवान जो। तेहस्वरूप ने अन्य वाणी तो शुकहे ?, अनुभवगोचर रह्यते ज्ञान जो ॥ घी का वर्णन लिखकर चाहे जितने पोथे भर दे, चाहे जितना विस्तृत कथन कर दे, उससे जीव को घी का स्वाद नहीं आ सकता। इसी प्रकार चैतन्य का चाहे जितना कथन किया जाये, स्व-अनुभव के बिना उसका आनन्द, उसका पूरा ज्ञान या दर्शन प्राप्त नहीं हो पाता। इसलिए आत्मा को यथार्थरूप में जानने-देखने वाला स्वयं आत्मा ही है, जो स्वानु'भव से ही जानता है। वाणी जड़-अचेतन है। उसके द्वारा आत्मा नहीं जाना-देखा जा सकता। और जब तक व्यक्ति आत्मा को ही यथार्थरूप में जानेगा- देखेगा नहीं, तब तक वह कोई भी साधना करेगा, उसके द्वारा पुण्य लाभ भले ही हो जाये, जन्म-मरण का अन्त नहीं आयेगा, जन्म-मरण का अन्त आये बिना परमात्मपद प्राप्ति होगी नहीं। अतः यह निश्चित है कि शुद्ध आत्मा को जानने देखने के लिए शुभ रागवश भी कोई पुण्य कार्य उपयोगी नहीं होता। जिस प्रकार स्वच्छ दर्पण पर कोई चन्दन का लेप करे, तो वह उसके लिए आवरण का कारण होता है, इसी प्रकार आत्मा पर भी शुभ राग आवरण ही होता है। अतः शुभरागवश भगवान् की भक्ति या द्रव्य पूजा-अर्चा से शुभकर्मबन्ध होता है । गौतम गणधर का भी अपने परम आराध्य गुरु, श्रमण भगवान् महावीर के प्रति प्रशस्त राग शुभकर्मबन्ध का कारण होने से आत्मा पर आवरणकारक बना। इसीलिए उनकी आत्मा जब तक सर्वथा रागरहित नहीं हुई, तब तक उन्हें केवलज्ञान नहीं हो सका। इसका फलितार्थ यह है कि शुद्ध निर्विकार आत्मा को ही जानने-देखने से परमात्मपद प्राप्त करने का द्वार खुलता है । १ 'अपूर्व अवसर' गा० २० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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