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________________ ६० | अप्पा सो परमप्पा होती तो वे झिड़क देते, कोई बात पूछने पर झल्ला उठते । रात-दिन उनके मन-मस्तिष्क में एक मात्र आत्मा को ही देखने-जानने की धुन लगी हुई थी। वे जब देखो तब शास्त्र, ग्रन्थ एवं गुरुवाणी उकलते रहते । परन्तु व्यावहारिक कार्यों के प्रति उपेक्षा के कारण उनके पारिवारिक सम्बन्धों में कटुता आ गई । पण्डितजी को स्वयं महसूस होने लगा कि मेरा जीवन नरकमय होता जा रहा है। एक दिन रात के समय पण्डितजी आत्मदर्शन के हेतु ध्यान में मग्न थे, तभी उनके अन्तर में प्रकाश की किरण फूटी। एक अव्यक्त आवाज आई-पण्डित जी ! तुमने मिथ्यामार्ग क्यों अपनाया है ? जहाँ जीवन में कटुता हो, वहाँ आत्मा के दर्शन कहां होंगे ? आत्मा को बाहर खोजने की अपेक्षा अपने अन्तर में खोजो । वह तो तुम्हारे पास, अन्दर ही है। अपने अन्तर में शुद्ध आत्मा को देखो-जानो और उस पर आए हुए आवरणों, दोषों, विकारों और विभावों को दूर करो । ऐसा करने से ही तुम्हें ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति से ओतप्रोत शुद्ध आत्मा के दर्शन होगे। ___अतः दोषों और मलिनताओं को दूर करने के लिए भी आत्मावलोकन करना आवश्यक है। आत्मा को देखने में शरीरादि समर्थ नहीं __यह तो निश्चित है कि इन चर्मचक्ष ओं से मनुष्य शरीर, इन्द्रियों, अंगो. पांग या उनके आकार-प्रकार को देख सकता है, किन्तु आत्मा-चेतना को नहीं। आँखें तांबे के तार देख सकती हैं, विद्य तु-तरंगों को नहीं। कान मनुष्यों आदि की भाषा को सुन सकते हैं, वक्षों आदि की भाषा को नहीं। इसीलिए आचारांग सूत्र में स्पष्ट वताया गया है कि आत्मा नेत्रों से नहीं देखा जा सकता, न कानों सूना जा सकता है, न नाक से सँघा जा सकता है, न जिह्वा से चखा जा सकता है, और न ही स्पर्श से अनुभव किया जा सकता है । मन, बुद्धि, वाणी आदि भी आत्मा के यथार्थ स्वरूप को प्रकट करने में असमर्थ हैं । यही तथ्य केनोपनिषद् ने अभिव्यक्त किया है । अतः आत्मा को जानने देखने में वैज्ञानिक युक्तियां, बुद्धि की तर्कशक्ति या स्थूल इन्द्रियाँ, मन की कल्पनाएँ काम नहीं आतीं। १ (क) से ण सद्दे, ण रूवे, ण गंधे, ण रसे, ण फासे इच्चेतावंति । सव्वे सरा णियति, तक्का तत्थ न विज्जइ, मई तत्थ न गःहिया ।" आचारांग १/५/५/५४२ ५६३ (ख) न तत्र चक्षर्गच्छति, न वाग्गच्छति, नो मनो, न विद्मो न विजानायो, यथैतद् अनुशिष्यात्ः। -केनोपनिषत् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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