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आत्मा को कहाँ और कैसे खोजें ? | ५६
हृदय स्वतः बोल उठता है - 'मेरे भीतर परमात्मा निवास कर रहा है ।" ऋग्वेद का निम्नोक्त सूत्र इस तथ्य का साक्षी है
"इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते । "1
'आत्मा (अपनी शुद्ध) अनुभूति रूपी लक्ष्मियों से उस समय पर - मात्मा रूप हो जाता है ।'
इसलिए परमात्मा को जानने-देखने के लिए आत्मा को शुद्ध रूप में जानना-देखना आवश्यक है । अथर्ववेद में भी बताया गया है'ये पुरुष ब्रह्म विदुः, ते विदुः परमेष्ठिनम् | 2
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जो पुरुष आत्मा को ब्रह्म ( शुद्ध आत्मा) के रूप में जान लेते हैं वे परमेष्ठी : = परमात्मा को भी जान लेते हैं ।
दोष- परिष्कार के लिए भी आत्मदर्शन आवश्यक आत्मा को जानने-देखने की इसलिए भी आवश्यकता है कि ऐसा करने से व्यक्ति को आत्मा पर आई हुई एवं आत्मा से भिन्न कई मलिनताएँ भी दृष्टिगोचर हो सकती हैं और व्यक्ति उन मलिनताओं को दूर करके आत्मा को शुद्ध-परिष्कृत एवं उज्ज्वल रूप में जान देख सकता है । कई बार साधक की असावधानी से आत्मा में कई वासनाएँ, पाप, दोष, दुर्वृत्तियाँ एवं मलिनताएँ प्रविष्ट हो जाती हैं, जो आत्मा के अनन्त सौन्दर्य को प्रभावित एवं आच्छादित कर देती हैं । आत्मा जब अपने अन्तर की गहराई में उतरकर चेतना के दर्पण में स्वयं को देखता - परखता है, तो उसे अपना उज्ज्वल, स्पष्ट, सुन्दर स्वरूप परिलक्षित होने लगता है । फलतः आत्मा में प्रविष्ट मलिनताएँ उसे स्पष्ट दिखाई देने लगती हैं, और वह उन मलिनताओं को दूर भी कर सकता है |
गाँव के बाहर नदी तट पर एक पण्डित जी रहते थे । वे विद्वान तो थे ही, साथ ही मिलनसार और सौम्य स्वभाव के थे । उनका जीवन श्रम और प्रामाणिक व्यवहार से चल रहा था । एक दिन पण्डितजी के मन में आत्मा को जानने-देखने और खोजने की प्रबल इच्छा उठी । वे उसके लिए प्रयत्न करने लगे । फिर तो ऐसी धुन सवार हुई कि वे आत्मा की खोज में अपने पारिवारिक एवं आजीविका सम्बन्धी सब उत्तरदायित्वों को छोड़ बैठे । वे आत्मा की खोज तो कर रहे थे, पर कर रहे थे बाहर ही बाहर । घर में कोई काम होता, या घर वालों को किसी वस्तु की आवश्यकता
१ ऋग्वेद ६०४७।७८ । २ अथर्ववेद |
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