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५८ ! अप्पा सो परमप्पा
आत्मावाऽरे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यश्च ।।
अरी मैत्रेयी ! आत्मा को ही तुम्हें देखना चाहिए, सुनना चाहिए, उसी का मनन करना चाहिए और निदिध्यासन (एकाग्रतापूर्वक ध्यान) करना चाहिए । (तभी तुम उस परब्रह्म को पा सकोगी ।) परमात्मपद के लिए आत्मावलोकन अनिवार्य
__ आत्मा के अस्तित्व को जान लेने तथा उसके स्वरूप या लक्षण को पुस्तकों में पढ़कर स्मरण कर लेने या किसी मन्त्र, स्तोत्र का पाठ कर लेने अथवा किसी देवी-देव या भगवान की छवि को देख लेने, उसकी पूजाअर्चना कर लेने, अथवा उसका गुणगान, स्तवन या भजन कर लेने मात्र से आत्मदर्शन नहीं हो पाता । वेद की एक ऋचा है
_ 'यस्तद् न वेद, किम् ऋचा करिष्यति ?'2 ___ जो उस आत्मा को नहीं जान-देख पाया, उसका ऋचा (मंत्र) पाठ, विवेचन या उच्चारण क्या कर सकता है ?
_आत्मा की अन्तर् में अनुभूति किये बिना केवल पठन-पाठन या उच्चारण आत्मा को परमात्मपद के निकट नहीं ले जा सकता। शास्त्रों और ग्रन्थों के पढ़ने से जानकारियां बढ़ सकती हैं, परन्तु आत्मा को देखनेखोजने पर जो आत्मानुभूति होती है, उससे अपने आपको और परमात्मा को जाना जा सकता है। शब्दों या शास्त्र पाठों का श्रद्धारहित उच्चारण एवं ऊहापोह करते रहने से भी आत्मा की उपलब्धि प्राप्ति नहीं होती।
आत्मा की उपलब्धि प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है-अन्तर् में डबकी लगाकर आत्म-ज्योति का दर्शन करना । ज्ञान, दर्शन, आनन्द और आत्मशक्ति से ओतप्रोत शुद्ध आत्मज्योति के दर्शन करने से ही परमात्मा के दर्शन करने की-सी अनुभूति होती है। इसीलिए एक अध्यात्मरसिक कवि ने कहा है
करो तुम लाख तदबीरें, जोग तप ज्ञान पाने की।
मगर घट को बिना खोजे, नहीं खुलता दुवारा है। अर्थात्--शुद्ध आत्मा परमात्मा का द्वार तभी खुलता है, जब आत्मा को खोज लिया जाएगा।
इस प्रकार की शुद्ध आत्मा का सतत् निरीक्षण करने से मनुष्य का
१ बृहदारप्यक उपनिषद् ३/५ २ ऋग्वेद
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