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५६ / अप्पा सो परमप्पा
जिस प्रकार जला हुआ बीज फिर कभी अंकुरित व उत्पन्न नहीं होता, उसी प्रकार तपश्चरण, ध्यान, संयम आदि की आध्यात्मिक अग्नि से जले हुए कर्मबोज भी फिर कभी जन्म-मरणरूप संसार के विष-अंकुर के रूप में उत्पन्न नहीं होते।
जिस प्रकार दध में से मथकर अलग निकाला हुआ मक्खन, अपने स्वरूप को छोड़कर पुनः दूध रूप नहीं हो सकता, उसी प्रकार कर्मों से सर्वथा पृथक् होकर पूर्ण शुद्धरूप हुई आत्मा-परमात्म स्वरूप बनी हुई सिद्ध-बुद्ध-मुक्त आत्मा पुनः कर्मों से, तत्फलस्वरूप जन्म-मरण रूप संसार से, कर्मजन्य सांसारिक सुख-दुःखों मे कदापि आबद्ध नहीं हो सकती। न्यायशास्त्र का यह अकाट्य सिद्धान्त है-कारण के बिना कार्य नहीं होता । जब मुक्त आत्मा के संसार में जन्म लेने के कारणभूत कर्म ही नहीं रहे, तब फिर संसार में पुनरागमनरूप कार्य कैसे हो सकेगा? इसीलिए मुक्त आत्मा के लिए कहा गया है---
अपुणरावित्ति सिद्धिगइ नामधेयं ठाणं संपत्ताणं अर्थात्-वे जहाँ से संसार में पुनरागमन नहीं होता ऐसी सिद्धिगति = मुक्ति नामक स्थान को प्राप्त हो चुके हैं। 2
इसीलिए प्रारम्भ में कहा गया था कि आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में विविध दर्शनों और मतों को विपरीत प्ररूपणा की अटवी से निकलकर जैनद ष्टि से आत्मा के यथार्थस्वरूप को जान लेने पर ही व्यक्ति परमात्मप्राप्ति की ओर अग्रसर हो सकता है।
१ नमोऽत्थुणं का पाठ
तुलना कीजिएमामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् । नाप्नुवन्ति महात्मानः, संसिद्धि परमांगताः ॥ १५ अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम् । यं प्राप्य न निवर्तन्ते, तद्धाम परमं मम ॥ गीता, ८/१५-२१
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