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________________ आत्मा का यथार्थ स्वरूप | ५५ इस प्रकार शुद्ध आत्मा का यथार्थ स्वरूप जानने पर ही व्यक्ति परमात्मा बनने के लिए अथवा परमात्मपद को प्राप्त करने के लिए अग्रसर एवं उत्साहित हो सकता है। ऐसी शुद्ध आत्मा और परमात्मा में कोई अन्तर नहीं रह जाता । ऐसी शुद्ध आत्मा राग-द्वेष-मोह आदि विकारों, कर्मों तथा कर्मों से प्राप्त होने वाले जन्म-मरण से तथा शरीरादि से सर्वथा रहित हो जाती है। ऐसा आत्मा सर्वज्ञ, मुक्त तथा संसार में आवागमन से रहित निरंजन निराकार परमात्मा बन जाता है। शुद्ध, सर्वज्ञ एवं मुक्त आत्मा अल्पज्ञ एवं जन्म-मरण से युक्त नहीं होता शुद्ध आत्मा का ऐसा यथार्थस्वरूप जान लेने पर व्यक्ति जन्म-मरण से मुक्त सर्वज्ञ परमात्मा बनने और उसके लिए तप, त्याग, व्रत, संयम आदि की साधना के लिए तत्पर हो सकता है। इसलिए आर्यसमाज का यह कथन सर्वथा युक्तिविरुद्ध है कि आत्मा कभी सर्वज्ञ तथा मुक्त नहीं हो सकती, वह मोक्ष से वापस लौटकर पुनः संसार में आ जाती है। यदि आत्मा सदैव अल्पज्ञ और अमुक्त ही रहे, संसार में ही परिभ्रमण करने के लिए वापस आ जाए, तब भला तप, संयम, व्रत-महाव्रत, त्याग-प्रत्याख्यान आदि की साधना एवं परमात्मा की आराधना-उपासना का क्या अर्थ है ? धर्म आत्मा को परमपद-परमात्मपद या मोक्षपद पर पहुँचाने के लिए ही तो है। सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप धर्म का व्यवहार और निश्चय से पालन-आराधन करने पर जब आत्मा ज्ञानादि की पूर्णता के शिखर पहुँच जाती है, तब वह अवश्य ही समस्त कर्मों से, जन्ममरण से, शरीरादि बन्धनों से, समस्त दुःखों से, समस्त राग-द्वषादि विकारों से मुक्त सिद्ध-बुद्ध परमात्मा हो जाती है। इस प्रकार मोक्ष प्राप्त करने के बाद फिर कभी उसे संसार में वापस आने की आवश्यकता नहीं होती। जो कर्मों से सर्वथा रहित, कृतकृत्य और पूर्ण हो गया है, वह भला पुनः कर्मों से लिपटने, संसार के पचड़े में पड़ने और अपूर्ण होने को क्यों आएगा ? अतः जैनदर्शन का ही नहीं, अन्य दर्शनों का भी यह मन्तव्य है कि परमधाम-सिद्धधाम या मोक्ष प्राप्त करने के बाद वह आत्मा पुनः कभी संसार में वापस नहीं लौटता । दशाश्रुतस्कन्ध में इसी तथ्य को रूपक द्वारा बताया गया है जहा दडढाण-बीयाणं ण जायंति पुणरंकुरा । कम्मबीएसु दड्ढेसु न जायंति भवांकुरा ।। १ टणाशतम्कन्ध ५/१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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