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________________ ५० | अप्पा सो परमप्पा विनष्ट होती रहती है । यह सिद्धान्त प्रत्यक्षतः बाधित है । एक आदमी ने चोरी करने का संकल्प किया, तब अन्य आत्मा थी, चोरी करने लगा, तब दूसरी आत्मा हो गई, क्योंकि पहले वाली आत्मा नष्ट हो गई, और जब चोरी कर ली, तब अन्य आत्मा उत्पन्न हो गई । अब यदि सरकार उस चोरी करने वाले को गिरफ्तार करके दण्ड देने लगे, तब बौद्धमतानुसार यदि वह कहने लगे कि चोरी करने वाला मैं नहीं, वह तो दूसरी आत्मा थी, मैं दूसरी आत्मा हूँ, वह आत्मा तो नष्ट हो गई, फिर मुझे दण्ड क्यों दिया जा रहा है ? क्या इस प्रकार के कथन से चोरी करने वाला दण्ड से छूट • सकता है ? कभी नहीं । मतलब यह है कि आत्मा को निरन्वय क्षणिक मानने से कर्म और कर्मफल का एकाधिकरणरूप सम्बन्ध अच्छी तरह घटित नहीं हो सकता । आत्मा के इस प्रकार क्षण-क्षण में बदलते रहने से पापकर्म किसी और आत्मा ने किया, उसका फल मिलेगा दूसरी आत्मा को । इस प्रकार कृतकर्म निष्फल हो जाता है, और अकृतकर्म का फल भोगना पड़ता है | यह सिद्धान्त कितना हानिकारक, अन्यायकारक और प्रत्यक्षबाधित है। अनुभव और तर्क की कसौटी पर भी यह सिद्धान्त खरा नहीं उतरता । जैसे -- किसी ने कहा - 'आत्मा क्षणिक है ।' इस प्रकार कहने वाला तो आत्मा ही है । उसने कब जाना कि आत्मा क्षणिक है ? क्योंकि क्षणिक जानने वाला आत्मा तो उसके मत से नष्ट हो गया, अब आत्मा का क्षणिक कहने वाला तो अन्य कोई आत्मा है, जिसने क्षणिक जाना नहीं । यदि वह जानने के बाद कहता है तो वह क्षणिक ही नहीं । यह तो 'वदतोव्याघात' है । क्योंकि जानने में भी कम से कम एक क्षण तो लग ही जाता है, फिर कहने में भी एक क्षण लग जाता है । जिसने जाना है, वहो कहता है, ऐसी स्थिति दो क्षण की हो गई । अतः सभी वस्तुएँ क्षणिक हैं, आत्मा भी क्षणिक है, यह सिद्धान्त स्वतः खण्डित हो जाता है । यह तो सबका अनुभव है कि हम जो कुछ भी बोलते हैं, उससे पूर्व विचार करते हैं । विचारने का क्षण और बोलने का क्षण दोनों अलग-अलग हो गए । ऐसी स्थिति में क्षणिकवाद के अनुसार विचार और विचारकर्त्ता दोनों नष्ट हो गए. फिर उन विचारों को कौन कहता है, विचार भी कौन करता है ? अतः यह अटपटा सिद्धान्त युक्तिहीन और अनुभवबाधित है । अगर आत्मा को निरन्वय क्षणिक माना जाए तो किसी आत्मा में क्रोधादि भाव पहले क्षण उठते हैं, दूसरे क्षण वह व्यक्त करता है, यह हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003189
Book TitleAppa so Parmappa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages422
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size18 MB
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