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४८ | अप्पा सो परमप्पा
द्रव्यों का संयोग । परन्तु उन द्रव्यों का संयोग दूर होते ही पानी अपनी मूल शीतलता गुण को प्राप्त कर लेता है। पानी में से शीतलता का गुण कभी नष्ट नहीं होता । इसी प्रकार ज्ञान आत्मा का मूल गुण है । उसका कभी नाश नहीं होता। कर्मों के संयोग से जीव के ज्ञान का विकास-ह्रास होता रहता है। ज्ञान गुण की ये पर्यायें हैं। ये उत्पन्न-विनष्ट होती रहती है, भ्रमवश जीव यह सोचता है कि स्मति-दोष के कारण अजित ज्ञान विनष्ट हो गया, परन्तु ज्ञान की ये पर्याय नष्ट हो गई । कभी ज्ञान का विकास हआ तो मनुष्य सोचता है, ज्ञान उत्पन्न हो गया, परन्तु ज्ञान कभी उत्पन्न-विनष्ट होता नहीं, वह तो आत्मा के साथ सदेव रहता है। ज्ञान गुण की पर्यायों में परिणमन (परिवर्तन) होता रहता है। अतः ज्ञान गुण तो ध्रव रहता है, कर्मवशात् उसकी पर्यायों का उत्पाद-व्यय होता रहता है । इसीलिए जैसे आत्मा सत् है, अर्थात्-तीनों कालों में अस्तित्ववान् है, उसी प्रकार उसके गुण भी सत् हैं - सदेव अस्तित्ववान हैं।
निष्कर्ष यह है कि आत्मा कुटस्थनित्य नहीं, परिणामोनित्य है । वह द्रव्य रूप से नित्य है, परन्तु पर्याय परिणमनशील होने से अनित्य हैं। अर्थात्- संसारी आत्मा कर्मानुसार नरक, तिर्यंच आदि में या दुःख-सुखादि रूप में बदलती रहती है, फिर भी आत्मतत्व रूप में स्थिर=नित्य रहती है । आत्मा का कदापि नाश नहीं होता । यही परिणामी नित्य का अभिप्राय
निश्चयनय से आत्मा का स्वरूप
निश्चयदृष्टि से आत्मा का स्वरूप समयसार में इस प्रकार प्रतिपादित किया गया है
जोवो अणाइ अणिधणो, अविनासी अक्खओ धुवोनिच्च ।
जीव (आत्मा) अनादि है, अनिधन है, अविनाशी है, अक्षय है, ध्र व है तथा नित्य (शाश्वत) है।
__ इस दृष्टि से आत्मा निश्चयनय से 'अनादि' है । उसका किसी विशेष समय पर जन्म नहीं होता, वह अजन्मा है। अगर आत्मा का जन्म हुआ होता तो इसकी आदि होती, और इसको मृत्यु भी मानी जाती । परन्तु आत्मा तो जन्म और मरण दोनों से रहित है। भगवद्गीता में भी कहा है कि 'आत्मा किसी काल में न तो जन्मता है, और न मरता है, और न ही यह आत्मा होकर फिर आत्मा होने वाला है। यह तो अज है, नित्य है, शाश्वत है, पुरातन है । शरीर का नाश होने पर भी यह (आत्मा) नष्ट
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